Brahma Kamal: केदारघाटी के बुग्यालों में खिले ब्रह्मकमल, शिवभक्ति और संरक्षण का प्रतीक बना हिमालयी पुष्प
केदारघाटी के बुग्यालों में इन दिनों दुर्लभ ब्रह्मकमल पुष्पों की बहार देखी जा रही है। यह पुष्प धार्मिक आस्था, प्राकृतिक सुंदरता और संरक्षण की चेतना का प्रतीक बन गया है। श्रावण मास में इसका शिवभक्ति से विशेष संबंध है।
Brahma Kamal: हिमालय की गोद में बसे केदारघाटी क्षेत्र में इन दिनों ब्रह्मकमल के दुर्लभ पुष्पों की बहार छाई हुई है। यह दृश्य न केवल प्राकृतिक सौंदर्य का अद्भुत उदाहरण है, बल्कि धार्मिक आस्था का भी प्रतीक है। भगवान शिव को अत्यंत प्रिय माने जाने वाले ब्रह्मकमल का सावन मास में विशेष महत्व होता है। सुरम्य मखमली बुग्यालों में खिले इन पुष्पों ने पूरे क्षेत्र को अलौकिक आभा से भर दिया है।
हिमालय में खिलते हैं दुर्लभ कमल
केदारनाथ क्षेत्र समेत ऊँचाई वाले इलाकों में तीन प्रकार के कमल पाए जाते हैं—ब्रह्मकमल, फेनकमल और सूर्यकमल। इनकी ऊँचाई के अनुसार भिन्न-भिन्न उपस्थिति होती है। ब्रह्मकमल 14,000 से 16,000 फीट की ऊंचाई पर खिलता है, जबकि फेनकमल 16,000 से 18,000 फीट की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पाया जाता है। सूर्यकमल तो और भी दुर्लभ है, जो बर्फीले इलाकों में देखा जाता है। इन पुष्पों की सुंदरता और दुर्लभता ही इन्हें विशेष बनाती है।
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ब्रह्मकमल का धार्मिक महत्व
हिंदू धर्म में ब्रह्मकमल को अत्यंत पवित्र और शुभ माना गया है। विशेषकर श्रावण मास में इसे भगवान शिव को अर्पित करना पुण्यदायक माना जाता है। केदारनाथ धाम के आसपास, वासुकीताल, रांसी, मनणामाई ट्रैक, पाण्डवसेरा, नंदी कुंड और बिसुणीताल जैसे क्षेत्रों में इन दिनों ब्रह्मकमल की भरमार है। इन पुष्पों को अर्पित करने से शिवतत्व, शिवज्ञान और शिवलोक की प्राप्ति का वर्णन धार्मिक ग्रंथों में किया गया है।
पौराणिक कथा से जुड़ी मान्यता
शिव महिम्न स्तोत्रम् में ब्रह्मकमल की महिमा का विस्तार से उल्लेख है। एक कथा के अनुसार, भगवान विष्णु ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए एक हजार ब्रह्मकमल से अभिषेक किया। जब एक पुष्प गायब हुआ, तो भगवान विष्णु ने अपनी भक्ति सिद्ध करते हुए अपने दाहिने नेत्र से भगवान शिव का अभिषेक किया। इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें ‘कमलनयन’ का आशीर्वाद दिया।
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संरक्षण और पारंपरिक अनुशासन
केदारनाथ वन्यजीव प्रभाग ब्रह्मकमल के संरक्षण के लिए ‘ब्रह्म वाटिका’ की स्थापना कर रहा है। इस फूल को तोड़ने और शिवालयों तक लाने के लिए विशेष धार्मिक नियमों का पालन करना पड़ता है। 14,000 फीट की ऊंचाई से इसे लाने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन, नंगे पांव चलना और अनुष्ठान करना आवश्यक माना जाता है।
परंपराएं आज भी जीवित
मदमहेश्वर धाम के हक-हकूकधारी भगत सिंह पंवार के अनुसार, पाण्डवसेरा-नंदी कुंड क्षेत्र में इन दिनों असंख्य ब्रह्मकमल खिले हैं, जिससे वातावरण स्वर्ग के समान प्रतीत होता है। वहीं, राकेश्वरी मंदिर समिति के कार्यकारी अध्यक्ष मदन भट्ट ने बताया कि मंदिर में दो माह चलने वाले जागरों के समापन पर देवी को ब्रह्मकमल अर्पित करने की परंपरा आज भी निभाई जाती है।
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स्थानीय जागरूकता और संरक्षण की मांग
नगर पंचायत अध्यक्ष कुब्जा धर्म्वाण ने ब्रह्मकमल के अंधाधुंध दोहन पर चिंता व्यक्त करते हुए इसके संरक्षण के लिए निरंतर प्रयासों की आवश्यकता बताई। उन्होंने कहा कि इस दुर्लभ पुष्प की प्राकृतिक सुंदरता और धार्मिक महत्ता को देखते हुए इसे संरक्षित करना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है। भेड़पालक बीरेन्द्र धिरवाण ने बताया कि स्थानीय त्योहारों में क्षेत्रपाल देवता को ब्रह्मकमल अर्पित करने की परंपरा भी आज तक जीवित है।
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ब्रह्मकमल न केवल प्राकृतिक सुंदरता का प्रतीक है, बल्कि यह उत्तराखंड की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं की अमूल्य धरोहर भी है। इसके संरक्षण और सम्मान की जिम्मेदारी हम सभी की है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इस अनुपम पुष्प की महिमा का साक्षात्कार कर सकें। श्रावण मास में शिवभक्तों के लिए यह पुष्प श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक बनकर हिमालय की ऊंचाइयों से जुड़ता है।
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