India Gaza Vote:भारत की UN वोटिंग से दूरी पर उठे सवाल, क्या गाजा युद्धविराम पर चुप रह गया ‘विश्वगुरु’?
12 जून 2025 को संयुक्त राष्ट्र में गाजा युद्धविराम प्रस्ताव पर भारत का मतदान से दूर रहना एक ऐसा फैसला बन गया है, जिसने देश की नैतिक नेतृत्व की छवि पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। कभी फिलिस्तीन के साथ मजबूती से खड़ा रहने वाला भारत अब चुप्पी साधे बैठा है। यह चुप्पी न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय मंच पर हमारी विश्वसनीयता को प्रभावित करती है, बल्कि हमारी ऐतिहासिक विरासत से भी विचलन है।
India Gaza Vote: संयुक्त राष्ट्र में गाजा युद्धविराम पर हुई वोटिंग से भारत का दूरी बनाना अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक ऐसा फैसला बन गया है, जिसने न केवल देश की ऐतिहासिक विदेश नीति को कठघरे में खड़ा किया है, बल्कि उसकी नैतिक प्रतिबद्धता पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। आलोचकों का कहना है कि यह निर्णय भारत की उपनिवेशवाद विरोधी विरासत, स्वतंत्रता संग्राम की भावना और वैश्विक न्याय के समर्थन के उस गौरवपूर्ण इतिहास से शर्मनाक विचलन है, जिसने दशकों तक भारत को दुनिया की नैतिक आवाज बना रखा था।
कभी फिलिस्तीन के साथ खड़ा रहने वाला भारत आज पूरी तरह खामोश नजर आ रहा है। देश के नीति निर्धारकों की इस चुप्पी को कई जानकार ‘कायरता’ करार दे रहे हैं, और यह भी आरोप लगा रहे हैं कि भारत अब अपने सिद्धांतों से ज्यादा तेल अवीव की रणनीति के करीब खड़ा दिखाई दे रहा है।
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भारत की ऐतिहासिक भूमिका
भारत ने हमेशा फिलिस्तीन के साथ एक सैद्धांतिक नाता जोड़ा है।
1974 में PLO को मान्यता देने वाला पहला गैर-अरब देश बना,
1983 में नई दिल्ली में आयोजित NAM सम्मेलन में यासिर अराफात को सम्मानपूर्वक बुलाया गया,
और 1988 में औपचारिक रूप से फिलिस्तीनी राज्य को मान्यता दी।
यह स्पष्ट था कि भारत ने न्याय और मानवाधिकार के पक्ष में रणनीतिक फायदे नहीं, बल्कि मूलभूत सिद्धांतों को प्राथमिकता दी थी।
आज के भारत की चुप्पी
“भारत तेल अवीव के आगे झुक गया है,” यह बात अब दुनिया भर में आलोचना का विषय बन चुकी है। दिसंबर 2024 में गाजा संघर्ष पर स्थायी युद्धविराम के पक्ष में भारत ने मतदान किया था, लेकिन जून 2025 में UN में वोटिंग से दूर रहना एक गहरी नीति-पलटी के रूप में देखा जा रहा है। आलोचकों का कहना है कि यह फैसला मोदी सरकार की स्मृति और सिद्धांतहीनता का उदाहरण है, जो सिर्फ ग्लैमर, इमेज बिल्डिंग और दिखावे की राजनीति में उलझ चुकी है।
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भाजपा सांसद का विरोधाभास
एक भाजपा सांसद ने हाल ही में भारत की ऐतिहासिक फिलिस्तीन नीति की खुले मंच पर सराहना की, लेकिन इसी सरकार ने गाजा युद्धविराम के समर्थन से खुद को अलग कर लिया। इस दोहरी नीति को लेकर विपक्ष और नागरिक समाज सरकार को ‘पाखंडी’ और ‘नैतिक रूप से दिवालिया’ बता रहा है।
बच्चों की मौत के बावजूद मौन
गाजा में बच्चों की मौत और जनसंहार की खबरें आम हो चुकी हैं। बावजूद इसके भारत की UN वोटिंग से दूरी को लेकर सवाल है। “क्या यह वही देश है जिसने कभी ‘सत्य’ और ‘अहिंसा’ की राह दिखाई थी?” ऐसी सरकार जो युद्ध में मारे जा रहे मासूमों के खिलाफ भी एक शब्द नहीं बोलती, वह अपने नागरिकों या दुनिया को नैतिक नेतृत्व देने की बात कैसे कर सकती है?
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वैश्विक मंच पर चुप्पी नहीं, साहस चाहिए
“दुनिया सबसे ऊंची आवाज़ सुनने वाले को नहीं, बल्कि सबसे सच्ची आवाज़ को सुनती है,” यह कथन आज के भारत पर पूरी तरह लागू होता है। यदि भारत को वैश्विक मंच पर अपनी प्रभावशीलता बनाए रखनी है, तो उसे वक्त पर बोलने की हिम्मत भी दिखानी होगी।
नेतन्याहू की आक्रामकता और भारत की चुप्पी
जब इज़राइल पूरे पश्चिम एशिया में हमले कर रहा है। गाजा, वेस्ट बैंक, लेबनान, सीरिया, यमन और यहां तक कि ईरान तक को निशाना बना रहा है। तो भारत की चुप्पी को ‘मिलीभगत’ और ‘नैतिक पतन’ के रूप में देखा जा रहा है। भारत की अंतरात्मा को, शायद, आज सबसे ज्यादा चोट पहुंची है।
अपनी आवाज न खोए भारत
भारत को वह आवाज़ फिर से तलाशनी होगी जो कभी नैतिकता का प्रतीक थी।
“हमारी ताकत हमेशा हमारे नैतिक वजन से आई है। जब हम निर्दोष जिंदगियों की रक्षा से इनकार करते हैं, तो हम अपनी नैतिक पूंजी खो देते हैं, जो विदेशों में बसे भारतीयों की भी रक्षा करती है।”
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