Manmohan Singh Political Journey: जानें कैसा रहा मनमोहन सिंह का राजनीतिक सफर?
देश के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने 33 साल के राजनीतिक करियर में सिर्फ एक बार आम चुनाव लड़ा था। 1999 में उन्होंने दक्षिणी दिल्ली से चुनाव लड़ा और करीब 30 हजार वोटों से हार गए थे। चुनाव में मनमोहन सिंह को कांग्रेस नेताओं का समर्थन नहीं मिला और यही उनकी हार का मुख्य कारण रहा।
Manmohan Singh Political Journey: पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का गुरुवार रात निधन हो गया। मनमोहन सिंह लंबे समय से बीमार थे। गुरुवार देर रात उनकी तबीयत बिगड़ने के बाद उन्हें देर शाम दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जहां उन्होंने अंतिम सांस ली। मनमोहन सिंह को भारत में आर्थिक सुधारों का जनक माना जाता है। वित्त मंत्री के तौर पर उन्होंने 1991 में उदारीकरण के जरिए भारत की अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाइयां दीं। दस साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह ने साढ़े तीन दशक के अपने राजनीतिक सफर में सिर्फ एक बार चुनाव में किस्मत आजमाई, लेकिन वे जीत का स्वाद नहीं चख सके।
मनमोहन सिंह यह अच्छी तरह जानते थे कि उनके पास कोई राजनीतिक जनाधार नहीं है। उन्होंने कहा था कि राजनेता बनना अच्छी बात है, लेकिन लोकतंत्र में राजनेता बनने के लिए आपको पहले चुनाव जीतना पड़ता है। मनमोहन सिंह ने 1991 में राजनीति में प्रवेश किया और जब वे वित्त मंत्री बने तो उन्होंने राज्यसभा के रास्ते संसद में प्रवेश का रास्ता चुना। इसके बाद वे राज्यसभा के रास्ते ही संसद में प्रवेश करते रहे, यहां तक कि जब वे दस साल तक प्रधानमंत्री रहे तो भी उन्होंने उच्च सदन का रास्ता चुना। इस तरह वे 33 साल तक राज्यसभा का प्रतिनिधित्व करते रहे।
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सिर्फ एक बार चुनाव में किस्मत आजमाई
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने राजनीतिक जीवन में सिर्फ़ एक बार चुनाव लड़ा, लेकिन जीत नहीं पाए। यह 1999 का लोकसभा चुनाव था। उस समय कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी थीं। 1996 से सत्ता से बाहर चल रही कांग्रेस को वापस लाने के लिए सोनिया गांधी ने अपने सभी बड़े नेताओं को चुनाव में उतारने का फ़ैसला किया था। सोनिया के आग्रह पर मनमोहन सिंह चुनाव लड़ने के लिए तैयार भी हो गए। हालांकि, चुनाव लड़ने का अनुभव उनके लिए अच्छा नहीं रहा। इसलिए उन्होंने फिर कभी लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा।
1999 में कांग्रेस ने मनमोहन सिंह के लिए लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए दक्षिण दिल्ली संसदीय सीट चुनी क्योंकि वह सीट राजनीतिक समीकरणों के लिहाज से उनके लिए उपयुक्त लग रही थी। मुस्लिम और सिख समुदाय के वोटों के राजनीतिक समीकरण को देखते हुए कांग्रेस ने मनमोहन सिंह को दक्षिण दिल्ली लोकसभा सीट से टिकट दिया। मनमोहन सिंह की पत्नी गुरशरण कौर उनके चुनाव लड़ने के खिलाफ थीं, लेकिन सोनिया गांधी के आदेश के चलते वह इसे टाल नहीं पाए। इस तरह वह अपनी पत्नी की मर्जी के खिलाफ चुनावी मैदान में उतरे।
मनमोहन सिंह को लगा कि पार्टी के वरिष्ठ नेता उनके पक्ष में हैं और वित्त मंत्री के तौर पर उनका काम भी अच्छा है। इसलिए चुनावी राजनीति में उतरने का यह सही समय था। उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया था। सिख-मुस्लिम वोटों के समीकरण के चलते मनमोहन सिंह को लगा कि यह सीट सबसे उपयुक्त है और वे चुनाव जीत जाएंगे। इसकी एक वजह यह भी थी कि 1999 के लोकसभा चुनाव से एक साल पहले दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनी थी। साउथ दिल्ली लोकसभा के अंतर्गत आने वाली 14 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस 10 सीटें जीतने में सफल रही थी।
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दक्षिण दिल्ली के राजनीतिक समीकरणों को देखते हुए मनमोहन सिंह को लगा कि उनकी जीत पक्की है। मनमोहन सिंह को लगा कि चूंकि पार्टी ने उन्हें उम्मीदवार बनाया है, इसलिए पार्टी के सभी नेता और कार्यकर्ता स्वाभाविक रूप से उनके साथ होंगे। लेकिन उन्हें राजनीति के दांव-पेंच नहीं पता थे। मनमोहन सिंह ने कांग्रेस से भाजपा के विजय कुमार मल्होत्रा के खिलाफ चुनाव लड़ा। मनमोहन सिंह की तरह मल्होत्रा की भी देशव्यापी पहचान नहीं थी, लेकिन दिल्ली की राजनीति में वे पंजाबी चेहरा थे। वे जनसंघ के जमाने से ही पार्टी से जुड़े हुए थे।
कांग्रेस कार्यकर्ताओं का नहीं मिला समर्थन
चुनाव मनमोहन सिंह और विजय कुमार मल्होत्रा के बीच था। मल्होत्रा को निकट भविष्य में अपनी जीत नहीं दिख रही थी और मनमोहन सिंह अपनी जीत के प्रति आश्वस्त दिख रहे थे। कांग्रेस के स्थानीय नेता उन्हें बाहरी उम्मीदवार मानकर मनमोहन सिंह के खिलाफ मजबूती से खड़े नहीं हो सके। इस कारण उन्हें कार्यकर्ताओं का समर्थन भी नहीं मिल पाया। मनमोहन सिंह के पास जनाधार नहीं था और इसलिए उनमें कार्यकर्ताओं को प्रेरित करने और मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की कला का अभाव था। कई कांग्रेसी नेताओं और उनके समर्थक पार्षदों ने भी उन्हें हराने का काम किया।
पूर्व पीएम जीत का स्वाद नहीं चख पाए
1999 का चुनाव मनमोहन सिंह करीब 30 हजार वोटों से हार गए थे। दक्षिणी दिल्ली लोकसभा सीट पर बीजेपी के विजय मल्होत्रा को 261230 वोट मिले थे और कांग्रेस के मनमोहन सिंह को 231231 वोट मिले थे। दक्षिणी दिल्ली लोकसभा सीट पर चुनावी हार मनमोहन के लिए सदमे की तरह थी। इसके बाद उन्हें लगने लगा था कि उनका चुनावी करियर शुरू होते ही खत्म हो गया, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मनमोहन सिंह अपनी राज्यसभा सीट पर बने रहे। इतना ही नहीं कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा में विपक्ष का नेता भी बनाए रखा। 2004 में एक बार फिर कांग्रेस ने मनमोहन सिंह को लोकसभा चुनाव के लिए टिकट ऑफर किया, लेकिन उन्होंने मना कर दिया और फिर कभी चुनाव नहीं लड़ा।
1999 में कांग्रेस ने पूर्व पीएम मनमोहन सिंह को चुनाव लड़ने के लिए पार्टी फंड से 20 लाख रुपए दिए थे। मनमोहन सिंह को लगा कि यह रकम चुनाव लड़ने के लिए काफी है, लेकिन जब उनके चुनाव प्रचार प्रबंधन को देख रहे हरचरण सिंह जोश ने उन्हें राजनीति की हकीकत से रूबरू कराया तो वे चौंक गए। हरचरण जोश ने अपने एक इंटरव्यू में बताया था कि मनमोहन सिंह हारे नहीं थे, पार्टी के कुछ स्थानीय नेताओं ने उन्हें हराने का काम किया था। जोश ने कहा था कि कांग्रेस की जीत पक्की है, लेकिन साउथ दिल्ली में मुकाबला डॉक्टर साहब बनाम कार सेवक हो गया है।
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डॉक्टर बनाम कार सेवक
जब डॉ. मनमोहन सिंह को चुनाव में उतारा गया तो नारा लगा कि मनमोहन सिंह लाओ, साउथ दिल्ली बचाओ। आईआईटी दिल्ली की रेड लाइट पर खड़े कांग्रेसी युवाओं ने चुनाव के पर्चे बांटे। इसके जवाब में एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने भाजपा उम्मीदवार विजय कुमार मल्होत्रा के चुनाव प्रचार की कमान संभाली। साउथ दिल्ली का चुनाव डॉक्टर साहब बनाम कारसेवक में तब्दील हो गया, क्योंकि मल्होत्रा संघ के जरिए राजनीति में आए थे। वे राम मंदिर आंदोलन में भी शामिल थे।
दिलचस्प बात यह है कि मनमोहन सिंह और विजय कुमार मल्होत्रा दोनों का जन्म पाकिस्तान में हुआ था। मनमोहन सिंह का जन्म 26 सितंबर 1932 को पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गाह गांव में हुआ था। इसी तरह विजय कुमार मल्होत्रा का जन्म लाहौर में हुआ था। आजादी के बाद जब देश का बंटवारा हुआ तो मनमोहन सिंह और मल्होत्रा दोनों भारत आ गए। मनमोहन सिंह पंजाब में बस गए और मल्होत्रा ने दिल्ली को अपनी कर्मभूमि बनाया। मनमोहन सिंह से पहले विजय कुमार मल्होत्रा राजनीति में आ चुके थे।
विजय कुमार मल्होत्रा ने आरएसएस छोड़ने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के साथ जनसंघ के ज़रिए राजनीति में प्रवेश किया था। 1967 में वे मुख्य कार्यकारी पार्षद चुने गए और तब इस पद की हैसियत आज के मुख्यमंत्री जैसी ही थी। इसके बाद के दिनों में मल्होत्रा, केदारनाथ साहनी और मदनलाल खुराना की ‘तिकड़ी’ ने दिल्ली में पहले जनसंघ, फिर जनता पार्टी और फिर भाजपा को मज़बूत किया। मल्होत्रा की यह राजनीति और हिंदुत्व की राजनीति मनमोहन के ख़िलाफ़ कारगर साबित हुई।
मनमोहन सिंह की हार की वजह क्या थी?
दक्षिण दिल्ली लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रहे मनमोहन सिंह को फंड देने के लिए कई उद्योगपति कलकत्ता से पैसे लेकर आए थे, लेकिन मनमोहन सिंह ने उनसे मुलाकात नहीं की। जोश के यह कहने के बाद भी कि कम से कम एक करोड़ रुपए की जरूरत होगी और उनके पास जो पैसे थे, वे खत्म हो रहे थे। एक दिन जोश ने अपनी पत्नी और बेटी दमन सिंह के सामने पूरी बात दोहराई। तब भी मनमोहन सिंह नहीं माने। इसके बाद जोश ने कहा कि डॉक्टर साहब, हम चुनाव हार जाएंगे। कार्यकर्ता हमारे साथ नहीं हैं, वे पैसे मांग रहे हैं। हमें चुनाव कार्यालय खोलना है, लोगों के खाने-पीने का इंतजाम करना है। यह सब बिना पैसे के नहीं हो सकता।
हरशरण जोश ने बताया कि मनमोहन सिंह को पार्टी से जो बीस लाख रुपये मिले थे, वह पार्टी के अन्य प्रत्याशियों से ज्यादा थे। लेकिन उन्होंने सोचा था कि विधायक और पार्षद बिना पैसे के उनकी मदद करेंगे और उनकी जीत सुनिश्चित करने के लिए काम करेंगे। जब हकीकत बताई गई तो मनमोहन सिंह राजी हो गए। उन्होंने चुनाव के लिए चंदा इकट्ठा किया। फाइनेंसरों से भी मिले, तब जाकर चुनाव जीता, लेकिन इसे जीत में तब्दील नहीं कर पाए। लोकसभा चुनाव के बाद मनमोहन ने पार्टी फंड से बचे हुए सात लाख रुपये वापस कर दिए। इसके बाद उन्होंने जीवन में दोबारा कभी लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा और राज्यसभा के जरिए संसद पहुंचे और देश के प्रधानमंत्री बने।
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