Political News: पिछले दो लोकसभा चुनाव में सबको परास्त कर सत्ता पर काबिज होने वाली बीजेपी की मुश्किल ये हैं कि पिछले 2019 के चुनाव में उसकी जो उपलब्धि थी वह केवल अबतक की सबसे बड़ी उपलब्धि नहीं नहीं थी ,वह बीजेपी के उत्कर्ष का भी चरम ही था। वह एक ऐसी सीमा थी जिससे आगे की बात नहीं की जा सकती। बीजेपी की इस उपलब्धि का आलम ये हुया कि उसके पास जो एनडीए था और उसके साथ जो घटक दल जुड़े हुए थे ,बीजेपी की ताकत और दम्भ के सामने हारते चले गए और अलग भी होते गए। अब कोई भी बड़ा क्षेत्रीय दल बीजेपी के साथ नहीं है। बीजेपी आज अकेले पड़ गई है। लेकिन उसकी विशाल संगठन ताकत आज भी बरकरार है। यही उसकी असली पूंजी है /यहॉ वह पूंजी है जो बीजेपी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रही है। लेकिन अब खेल यह होता जा रहा है कि केवल अपनी पूंजी के जरिए ही बीजेपी फिर से विजय हासिल नहीं कर सकती।
यह बीजेपी भी जानती है।
पिछले दिनों संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में जो बातें कही गई थी वह कोई मामूली बात नहीं है। बीजेपी तो हालिया पार्टी है। लेकिन संघ के अब सौ साल होने वाले हैं। 2025 में संघ भी अपना शतक दिवस मनाएगा। लेकिन अगर बीजेपी अगले लोकसभा चुनाव में सत्ता में नहीं लौटी तो संघ की भी परेशानी होगी और बीजेपी की तो बात ही न की जाए। संघ को लग रहा है कि अब तक बीजेपी का जितना विस्तार हुआ है उसमे पीएम मोदी की भूमिका ज्यादा रही है। संघ भी मान रहा है कि पीएम मोदी के चेहरे के सामने आज कोई बह नेता देश में नहीं है। लेकिन संघ यह भी मान रहा है कि किसी भी चेहरे के उत्कर्ष का समय होता है। कोई भी चेहरा स्थाई नहीं होता। लोग भी एक समय बात उस चेहरे से ऊबने लगते हैं। यही वजह है कि संघ ने अपने मुखपत्र में साफ़ कहा है कि अब केवल मोदी के चेहरे पर ही चुनाव नहीं जीते जा सकते। हर राज्यों में क्षत्रपों को तैयार करने की जरूरत है।
और ऐसा नहीं हुआ तो मुश्किलें बढ़ेगी।
दरअसल ,जिस तरह से बीजेपी के खिलाफ विपक्ष लामबंद हो रहा है उससे संग की चिंता भी बढ़ गई है। कई मामलों में बीजेपी फेल हो सकती है लेकिन संघ की जमीनी ताकत इतनी बड़ी है कि वह अपने आकलन में कभी फेल नहीं होती। ऐसे में संघ देख रहा है कि जब सारे विपक्षी दल एक हो जायेंगे तो वोटों का बटवारा नहीं हो पायेगा। संघ को पता है कि पिछले दो लोकसभा चुनाव में बीजेपी को जो 37 फीसदी वोट मिलते रहे और बाकी दलों को 63 फीसदी वोट मिले हैं। लेकिन विपक्षी की दिक्कत यह थी कि ये सारे वोट बिखड़े हुए थे। और इसका लाभ बीजेपी को मिलता रहा है। ऐसे में विपक्ष अगर एक जुट होकर हर सीट पर बीजेपी के खिलाफ एक उम्मीदवार खड़ा करता है तो जाहिर है कि विपक्ष का पलड़ा भारी पडेगा।
संघ के साथ ही बीजेपी भी इस खेल को समझ रही है। और यही बीजेपी की मुश्किल है।
एक तरफ 37 फीसदी वोट और दूसरी तरफ साझा उम्मीदवार को 63 फीसदी वोट ! कोई तुलना ही नहीं है। ऊपर से सरकार के खिलाफ माहौल अलग से। ऐसे में बीजेपी की चुनौती यही है कि वह एनडीए को कैसे तैयार करे ताकि विपक्ष को उलझाया जा सके। बीजेपी और संघ को यह पता है कि चाहे कितना भी हिंदुत्व का कार्ड खेला जायेगा या फिर राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाया जाएगा लेकिन देश की जो मौलिक समस्या महंगाई ,बेरोजगारी है उसकी स्थिति बेहद ख़राब है। बीजेपी को यह भी लग रहा है कि पहलवान और किसान के मसले पर भी वह घिर रही है लेकिन चुकी बीजेपी इतनी ताकतवर हो चुकी है कि अगर कुछ राज्यों में उसे नए साथ मिल गए तो वह विपक्ष का मुकबला कर सकती है।
बीजेपी को उम्मीद है कि आंध्रा में चंद्रबाबू नायडू से उसके गठजोड़ हो सकते हैं।
इत्मिनाडु में अन्नाद्रमुक से गठजोड़ है ही। कर्नाटक में जेडीएस के साथ भी बीजेपी की बात संभव है और पंजाब में भी अकाली दल के साथ उसकी बात हो सकती है। इसके साथ ही बिहार ,यूपी और कई अन्य राज्यों में छोटी -छोटी पार्टियों के साथ गठजोड़ कर वह विपक्ष को चुनौती दे सकती है। और ऐसा नहीं हुआ तो पिछले चुनाव में जिन दलों के साथ मिलकर बीजेपी ने बड़ी सीटें जीती थी उसका नुकसान होगा ही ,विपक्ष के साझा उम्मीदवार से भी उसकी मुश्किलें बाद जाएगी। जो वोट पहले विपक्ष में बांटकर बीजेपी लाभ ले रही थी अब शायद ऐसा न हो। बीजेपी की असली परेशानी यही है। और सबसे बड़ी बात कि अगर हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर कुछ और नए वोट बीजेपी के साथ जुड़ते भी है तो विपक्ष का वोट बैंक फिर भी काफी आगे होगा। बीजेपी भले ही सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर भी जाए लेकिन सरकार बनाने में पीछे रह सकती है।