UP Ghaziabad News: गर्भवती की गुहार और कानून का तमाचा: क्या इंसाफ अब नीलाम होने लगा है?
गाजियाबाद के खोड़ा थाना क्षेत्र में सात माह की गर्भवती महिला अपने अजन्मे शिशु को लिए इंसाफ की भीख मांगती रही, मगर कानून के दावेदारों ने उसकी पीड़ा पर ध्यान देना उचित नहीं समझा।
UP Ghaziabad News: जब न्यायपालिका का मूल चरित्र सवालों के कठघरे में हो और विधि-व्यवस्था जनसेवा के बजाय मनमानी का पर्याय बन जाए, तब समझ लेना चाहिए कि ‘कानून’ अब केवल किताबों तक सीमित रह गया है। एक ऐसी ही न्यायिक त्रासदी गाजियाबाद के खोड़ा थाना क्षेत्र में देखने को मिली, जहां सात माह की गर्भवती महिला अपने अजन्मे शिशु को लिए इंसाफ की भीख मांगती रही, मगर कानून के दावेदारों ने उसकी पीड़ा पर ध्यान देना उचित नहीं समझा।
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मामूली कहासुनी और 151 का दंडादेश
संपूर्ण घटनाक्रम की शुरुआत उस अव्यवस्था से हुई, जिसे प्रशासनिक मनमानी कहना उचित होगा। एक व्यक्ति का अपने पड़ोसी से मामूली विवाद हुआ, किंतु पुलिस ने इसे अपराध की श्रेणी में डालते हुए धारा 151 का प्रयोग किया—वह भी इस नीयत से कि जमानती धारा को भी कठोर दंड में परिवर्तित किया जा सके। पुलिस ने व्यक्ति को तत्काल एसीपी कोर्ट तुलसुनिकेतन में पेश किया, जहां जमानत स्वीकार होने के बावजूद उसे जेल भेज दिया गया।
बिलखती गर्भवती, संवेदनहीन तंत्र
पति की गिरफ्तारी के बाद जब पीड़िता न्याय की गुहार लगाने थाने पहुंची, तो उसे इंसाफ की जगह उपेक्षा मिली। वहीं थाने में पीड़िता की बहन से ₹50,000 की मांग की गई ऐसा आरोप लगाया है पीड़िता ने, जिसे पूरा करने में असमर्थता जताने पर प्रशासन ने अपने अधिकारों का पूर्ण दुरुपयोग करते हुए गिरफ्तारी को अंतिम निर्णय बना दिया। अब सात माह की गर्भवती महिला, जो खुद को कानून के सुरक्षा कवच में सुरक्षित समझती थी, बेबस और लाचार होकर न्याय की चौखट पर ठोकरें खा रही है। उसका अपराध क्या था? क्या गरीब होना इस देश में अब ‘अक्षम्य अपराध’ की श्रेणी में आ चुका है?
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कमिश्नरेट सिस्टम: न्याय का प्रहरी या उत्पीड़न का नया यंत्र?
गाजियाबाद में कमिश्नरेट प्रणाली लागू होने के बाद न्यायिक समीकरण बदल चुके हैं। अब अधिकारों का प्रयोग जनहित में नहीं, बल्कि विशेष वर्ग की सहूलियत के अनुसार किया जाता है। जबसे जिला मजिस्ट्रेट के हाथों से कई प्रशासनिक शक्तियां छीनी गई हैं, तभी से पुलिस महकमे के भीतर एक अघोषित सत्ता केंद्र पनप चुका है, जहां निर्णय न्याय के सिद्धांतों पर नहीं, बल्कि व्यक्तिगत स्वार्थों और शक्ति प्रदर्शन के आधार पर लिए जाते हैं। धारा 151 एक जमानती अपराध है, फिर भी न्यायालय के आदेश को धता बताते हुए आरोपी को जेल भेजना क्या प्रशासनिक निरंकुशता का प्रमाण नहीं? क्या यह संकेत नहीं देता कि कमिश्नरेट प्रणाली अब गरीबों के दमन का औजार बन चुकी है?
क्या गरीब की जमानत अब सौदेबाजी में बदल गई है?
इस पूरे घटनाक्रम में सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या अब जमानत भी किसी ‘नीलामी’ का हिस्सा बन चुकी है? यदि ₹50,000 अदा किए जाते तो क्या गिरफ्तारी नहीं होती? यदि आरोपी कोई प्रभावशाली व्यक्ति होता तो क्या 151 को इतना कठोर बना दिया जाता? गाजियाबाद पुलिस का यह रवैया दर्शाता है कि अब कानून की किताबें केवल शक्ति प्रदर्शन का साधन मात्र रह गई हैं, और ‘न्याय’ को केवल उन्हीं के लिए सुरक्षित रखा गया है, जिनके पास पहुंच, पैसा और प्रभाव है।
वहीं संबंधित अधिकारियों से इस पूरे मामले को लेकर जब बात करने का प्रयास किया गया तो होली के त्योहार की व्यस्तता होने की वजह। अब देखना होगा कि इस पूरे मामले में उच्च अधिकारियों का क्या रुख होगा।
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