बड़े-बुजुर्ग कहते हैं, यदि लंबे वक्त तक कोई व्यक्ति सफल नहीं हो पा रहा है, तो उसे अपना नजरिए, अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन कर पुनः प्रयास करना चाहिए, क्योंकि दृष्टि बदलते ही सृष्टि बदल जाती है। संसार की ओर हम जिस प्रकार देखेंगे, संसार हमें वैसा ही दिखाई देगा। इसलिए सफलता प्राप्त करने के लिए कभी भी अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना चाहिए।
वेद, पुराण, शास्त्रों का उद्देश्य व्यक्ति को सही राह दिखाकर उसका कल्याण करना है। बड़े-बुजुर्ग कहते हैं, अगर लंबे समय तक कोई व्यक्ति सफल नहीं हो पा रहा है, तो उसे अपना नजरिए, अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन कर पुनः प्रयास करना चाहिए, क्योंकि दृष्टि बदलते ही सृष्टि बदल जाती है। संसार की ओर हम जिस प्रकार देखेंगे, संसार हमें वैसा ही दिखाई देगा, आइए जानें कैसे . .
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दृष्टि में अगर सकारात्मक भाव विद्यमान हो तो व्यक्ति को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता मिलती है, इसी से जुड़ा एक प्रसंग जनमानस में अक्सर सुनाई पड़ता है। कहा जाता है कि जहां श्री राम की कथा होती है, वहां राम भक्त श्री हनुमान जी अवश्य पधारते हैं। एक बार की बात है, प्रसिद्ध संत रामदास अपने शिष्यों को कथा में हनुमान जी की गाथा सुना रहे थे, जहां अशोक वाटिका में हनुमानजी का प्रवेश प्रसंग चल रहा था। रामदास जी ने शिष्यों से कहा, ‘हनुमानजी अशोक वाटिका में गए, वहां उन्होंनें सफेद फूल देखे।’ उनकी कथा को स्वयं हनुमानजी अदृश्य रूप में सुन रहे थे। हनुमानजी ने सुना कि रामदासजी शिष्यों को सफेद फूल के बारे में बता रहे हैं, जबकि स्वयं हनुमानजी ने अशोक वाटिका में लाल फूल देखे थे। यह सुनते ही हनुमानजी प्रकट हो गए और बोले, ‘मैंने सफेद फूल नहीं देखे, आप गलत बता रहे हैं।’ संत बड़े प्रतापी थे, उन्होंने हनुमानजी को प्रणाम कर फिर अपनी बात कही कि ‘प्रभु मैं ठीक कह रहा हूं, आपने अशोक वाटिका में सफेद फूल ही देखे थे।’ हनुमान जी ने कहा, ‘यह कैसे हो सकता है, मैं स्वयं वहाँ गया था और मैं हमेशा सत्य वचन ही कहता हूं।’ कहा जाता है कि जब कोई निर्णय नहीं हुआ तो यह बात भगवान राम के पास पहुंची। भगवान राम ने हनुमान जी से कहा, ‘हे हनुमान! फूल तो सफेद ही थे, लेकिन उस समय तुम्हारी आंखें क्रोध से लाल हो रही थीं, इसलिए सफेद फूल तुम्हें लाल दिखाई पड़े।’ निष्कर्ष यह निकला कि क्रोध के कारण ही हनुमान जी को सफेद फूल लाल दिखाई पड़े। तुलसीदासजी ने भी कहा है, जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। अर्थात जिसकी जैसी दृष्टि होती है उसे वैसी ही प्रभु मूरत नजर आती है।
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धर्मशास्त्रों में दृष्टि दो प्रकार का वर्णन प्राप्त होता है, एक गुणग्राही और दूसरी छिन्द्रान्वेषी दृष्टि। गुणग्राही व्यक्ति खूबियों को और छिन्द्रान्वेषी व्यक्ति खामियों को देखता है। गुणग्राही व्यक्ति कोयल को देखता है तो कहता है कि कितना प्यारा बोलती है और छिन्द्रान्वेषी व्यक्ति कोयल को देखता है तो कहता है कि कोयल कितनी बदसूरत दिखती है। गुणग्राही व्यक्ति मोर को देखता है तो कहता है कि, ‘वाह! मोर कितना सुंदर है’ और छिन्द्रान्वेषी व्यक्ति कहता है कि, ‘मोरी की कितनी भद्दी आवाज है, कितने रुखे पैर हैं।’ गुणग्राही व्यक्ति गुलाब के पौधे को देखता है तो कहता है कि, ‘वाह! कैसा अद्भुत सौंदर्य है, कितने सुंदर फूल खिले हैं’ जबकि छिन्द्रान्वेषी व्यक्ति गुलाब को देखकर कहता है कि ‘गुलाब के पौधे में कांटे ही कांटे हैं।’ यहां गुलाब का पौधा एक ही है लेकिन दोनों व्यक्तियों की दृष्टि का फर्क है। जो गुणों को देखता है वह बुराइयों को नहीं देखता है। कहा जाता है कि कबीर ने बहुत कोशिश की बुरे आदमी को खोजने की। गली-गली, गांव-गांव खोजते रहे लेकिन उन्हें कोई बुरा आदमी न मिला। मालूम है क्यों? क्योंकि कबीर भले आदमी थे, भले आदमी को बुरा आदमी कैसे मिल सकता है? कबीर ने कहा, बुरा जो खोजन मैं चला, बुरा न मिलिया कोई, जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय। इसलिए कहा गया है कि जीवन की दिशा और दशा सकारात्मक सोच से निखरेगी क्योंकि जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि, जैसी सोच वैसा दृश्य दिखाई देता है। किसी शायर ने फरमाया है,
किश्ती का रुख बदलें, किनारे बदल जायेंगे।
नज़र बदलें, नजारे बदल जायेंगे।।