भरा-पूरा परिवार के बीच अकेलापन झेलते बुजुर्ग
नई दिल्ली: कुछ रिश्ते को हमारी धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती। वे केवल हमसे कुछ पल का साथ और अपनापन चाहते हैं। माता-पिता और संतान के रिश्ते में स्वार्थ का कोई स्थान नहीं होता। संतान और मां-बाप का रिश्ता ईश्वर बनाता है, इसीलिए इस रिश्ते का सही से निर्वाह पूरी जिम्मेदारी से करना चाहिए है।
अधिकांश अभिजात वर्गो के बुजुर्गों को एकाकी जीवन का दंश झेलते हुए देखा जा सकता है। यह अकेलापन उनका भरा-पूरा परिवार होने के बावजूद होता है, यदि वृद्ध पति-पत्नी में किसी एक का निधन हो जाता है, यह अकेलापन और भी डरावना बन जाता है। कई बुजुर्ग ऐसे होते हैं जो अपने चिड़चिड़ेपन की प्रवृत्ति के कारण परिवार के लोगों के साथ घुलमिल नहीं पाते और एकाकी जीवन जीने को मजबूर होते हैं।
संपन्नता के बावजूद असहायों सा जीवन
कुछ मामले देखा गया है कि काम-धन्धें, नौकरी, व्यवसाय आदि के कारण लोगों को अपने पैतृक घरों और परिवार से दूर रहना पड़ती है और उनके बुजुर्ग माता-पिता अकेले जीवन काट रहे होते हैं। आर्थिक रूप से संपन्न होने के बावजूद ऐसे बुजुर्ग दंपत्ति तन्हा असहायों जैसा जीवन काटते हैं।
उपेक्षा और लाचारी का अनुभव
कई परिवारों में बुर्जुगों का दर्द यह होता है कि उनके बच्चे यानी बहू-बेटों के पास ज़रा सी देर के लिए भी उनके
पास बैठने का समय नहीं होता, जबकि पोते-पोतियां, नाती-नातिन भी केवल काम होने पर ही उनके कमरे में आते हैं। ऐसे में वे किससे बातचीत करके अपना मन हल्का नहीं कर पाते। ये बुजुर्ग स्वयं को उपेक्षित और लाचारी का अनुभव करते हैं। दुख तो तब होता है, जब घर का हर छोटा-बड़ा सदस्य समय न होने का बहाना करके जानबूझकर उनसे दूरी रखने की कोशिश करता है।
उपेक्षा और लाचारी का होती है अहसास
बुर्जुगों के अस्वस्थ होने पर भी जब चिकित्सक उन्हें अकेला न छोड़ने की सलाह देते हैं, तब भी उनके बच्चों इनके साथ रहने को कोई तैयार नहीं होते। आर्थिक रूप से सम्पन्न बच्चे अपना दायित्व निभाने के क्रम में घर में ही नर्स-चिकित्सक का प्रबंध तो कर देते हैं, लेकिन उनके पास मां-बाप के पास बैठने का समय नहीं होता। ऐसे में वे ये भूल जाते हैं कि उनके माता-पिता उपेक्षा और लाचारी महसूस करते हैं। उनकी बीमारी के इलाज के लिए दवा से कहीं ज्यादा प्रभावी प्यार, आत्मियता और अपनत्व कारगर होता है।
रिश्तों के निर्वाहन में अपनत्व होना आवश्यक
मां-बाप और संतान के रिश्ते के कर्तव्य निर्वाहन में अपनत्व और सम्मान होना आवश्यक है। आज की भागदौड़ भरी हमारी जीवन शैली ही कुछ ऐसी हो चुकी है कि हमारे पास धन तो है, लेकिन हमारे पास अपने और अपनों के लिए समय नहीं है। कुछ रिश्ते को हमारी धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती। वे केवल हमसे कुछ पल का साथ और अपनापन चाहते हैं। माता-पिता और संतान के रिश्ते में स्वार्थ का कोई स्थान नहीं होता। संतान और मां-बाप का रिश्ता ईश्वर बनाता है, इसीलिए इस रिश्ते का सही से निर्वाह पूरी जिम्मेदारी से किया जाना चाहिए।
माता-पिता की भावनाओं का सम्मान करें
बचपन में जिस तरह से मां-बाप तमाम परेशानी उठाकर हमें बड़े नाज़ों से पालते-पोसते हैं, उसी तरह हम सबका भी यह नैतिक दायित्व है कि वृद्धा अवस्था में हम अपने माता-पिता को भरपूर प्यार-सम्मान देकर उनकी भावनाओं का मान रखें। हम अपने बच्चे को खूब प्यार और सुविधाएं दें, लेकिन अपने वृद्ध जनक-जननी का भी ध्यान रखें, उन्हें समय दें, रोज उनके बातें करें, उनसे अपनी खुशियां बांटे। बुढापे में उन्हें हमारे साथ की आवश्यकता होती है, इसलिए हम कितने भी व्यस्त क्यों न हो, प्रतिदिन अपने माता-पिता के लिए समय जरूर निकालें, यदि हम सब व्यवहारिक सोच रखेंगे, तभी समाज में एकाकी जीवन का दंश झेलते बुजुर्गों की स्थिति में बदलाव का उम्मीद का जा सकती है।