Harela Festival Plantation: हरेला पर्व पर पौधारोपण की सफलता बनाम वन विभाग की विफलता, सर्वाइवल रेट में बड़ा अंतर बना चिंता का विषय
उत्तराखंड में हरेला पर्व पर लगाए गए पौधों का सर्वाइवल रेट 80% तक दर्ज किया गया है, जबकि सालभर वन विभाग द्वारा किए गए पौधारोपण में यह केवल 30-35% है। इस अंतर ने विभागीय कार्यशैली और निगरानी व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिए हैं। विशेषज्ञों ने जनभागीदारी, पारदर्शिता और पौधों की नियमित देखरेख को सुधार का जरिया बताया है।
Harela Festival Plantation: उत्तराखंड में हर साल हरेला पर्व के अवसर पर बड़े स्तर पर पौधारोपण किया जाता है और इसे पर्यावरण संरक्षण के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष भी राज्यभर में लाखों पौधे लगाने का लक्ष्य रखा गया, जिसे पार कर विभाग ने उल्लेखनीय कार्य किया है। लेकिन जितनी चर्चा पौधारोपण की संख्या को लेकर होती है, उतनी ही चिंता पौधों के जीवित रहने यानी सर्वाइवल रेट को लेकर भी सामने आ रही है।
80% बनाम 35%: दोहरी तस्वीर
हरेला पर्व पर लगाए जाने वाले पौधों के सर्वाइवल रेट को लेकर वन मंत्री सुबोध उनियाल का बयान चौंकाने वाला है। उन्होंने दावा किया है कि हरेला के अवसर पर लगाए गए पौधों का सर्वाइवल रेट 80 प्रतिशत तक रहता है। वहीं, साल भर वन विभाग द्वारा किए गए पौधारोपण का सर्वाइवल रेट महज 30 से 35 प्रतिशत ही दर्ज किया जाता है। यह अंतर न सिर्फ बड़ा है बल्कि विभागीय कार्यप्रणाली पर सवाल भी खड़े करता है।
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हरेला पर जनता की भागीदारी से मिली सफलता
विशेषज्ञों का मानना है कि हरेला के दिन पौधारोपण में आम लोगों की भागीदारी अधिक होती है। स्कूल, कॉलेज, संस्थान, सामाजिक संगठन और स्वयंसेवी लोग इस दिन बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। यही कारण है कि लगाए गए पौधों की देखभाल भी बेहतर होती है और वे जीवित रहते हैं। वहीं, सामान्य दिनों में विभागीय स्तर पर होने वाले पौधारोपण में जन सहभागिता नगण्य होती है, जिससे पौधे जल्द ही सूख जाते हैं या नष्ट हो जाते हैं।
क्या कहता है विभाग?
जब इस विरोधाभास पर वन मंत्री से सवाल किया गया तो उन्होंने स्पष्ट किया कि 80% का आंकड़ा केवल हरेला पर्व के पौधों का है। उन्होंने माना कि सालभर के दौरान होने वाले पौधारोपण की स्थिति में सुधार की आवश्यकता है और इसके लिए विभाग प्रयासरत है। मंत्री ने स्वीकार किया कि विभाग की कार्यशैली में पारदर्शिता लाने और निगरानी तंत्र को मजबूत करने की आवश्यकता है।
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जियो टैगिंग और सोशल मीडिया की हकीकत
वन विभाग ने पौधारोपण को ट्रैक करने के लिए जियो टैगिंग और सोशल मीडिया के माध्यम से जानकारी साझा करने की बात कही है। अधिकारी यह दावा करते हैं कि हर पौधे की लोकेशन रिकॉर्ड की जाती है और सोशल प्लेटफॉर्म पर अपलोड की जाती है, ताकि आम लोग भी निगरानी कर सकें। लेकिन वास्तव में जमीनी स्तर पर इसकी क्रियान्विति बहुत कमजोर है। सोशल मीडिया पर अधिकतर पोस्ट औपचारिकताओं तक सीमित रहती हैं, और स्थानीय जनता को पौधों की देखरेख की जिम्मेदारी नहीं दी जाती।
थर्ड पार्टी मॉनिटरिंग का दावा अधूरा
पौधारोपण की निगरानी के लिए थर्ड पार्टी मॉनिटरिंग की व्यवस्था की गई है, लेकिन इसकी रिपोर्ट्स कभी सार्वजनिक नहीं की गईं। नतीजा यह है कि पौधों की स्थिति पर पारदर्शी जानकारी सामने नहीं आ पाती। अगर इन रिपोर्ट्स को सार्वजनिक किया जाए और आम जनता को निगरानी प्रक्रिया से जोड़ा जाए, तो न केवल पौधों की रक्षा होगी बल्कि विभाग की कार्यशैली में सुधार भी देखने को मिलेगा।
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क्या होना चाहिए समाधान?
विशेषज्ञ मानते हैं कि पौधारोपण केवल एक उत्सव तक सीमित न रहे, बल्कि उसे दीर्घकालिक योजना के तहत किया जाए। स्थानीय लोगों को जिम्मेदारी सौंपना, पौधों की नियमित निगरानी, सार्वजनिक रिपोर्टिंग और समय-समय पर सर्वाइवल रेट की समीक्षा अनिवार्य होनी चाहिए। साथ ही, पौधे लगाने के बाद कम से कम दो वर्षों तक देखरेख की व्यवस्था की जानी चाहिए।
उत्तराखंड में हर साल लाखों पौधे लगाए जाते हैं, लेकिन अगर वे जीवित नहीं रहते तो सारा प्रयास व्यर्थ हो जाता है। हरेला पर्व की सफलता इस बात का उदाहरण है कि जन भागीदारी और जवाबदेही से अच्छे परिणाम मिल सकते हैं। अब जरूरत है कि वन विभाग पूरे साल इसी मॉडल को अपनाए और पौधारोपण को संख्याओं से आगे बढ़ाकर गुणवत्ता की दिशा में ले जाए।
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