MP News: पेड़ बचेंगे, तभी जीवन बचेगा, 18 मई को चिपको आंदोलन की पुकार
उत्तराखंड के हरे-भरे जंगलों में एक बार फिर गूंज उठी है पेड़ों की पुकार — "हमें बचाओ!"। 18 मई को प्रस्तावित एक बड़े आंदोलन ने एक बार फिर 1970 के दशक की यादें ताज़ा कर दी हैं, जब महिलाओं ने पेड़ों से लिपटकर उन्हें काटने से बचाया था। आज वही भावना, वही संघर्ष फिर से सामने है। फर्क बस इतना है
MP News: उत्तराखंड के हरे-भरे जंगलों में एक बार फिर गूंज उठी है पेड़ों की पुकार — “हमें बचाओ!”। 18 मई को प्रस्तावित एक बड़े आंदोलन ने एक बार फिर 1970 के दशक की यादें ताज़ा कर दी हैं, जब महिलाओं ने पेड़ों से लिपटकर उन्हें काटने से बचाया था। आज वही भावना, वही संघर्ष फिर से सामने है। फर्क बस इतना है कि अब खतरा और भी बड़ा है — करीब 8000 पेड़ों की सांसें अटकी हुई हैं।
क्या है मामला?
उत्तराखंड के ऋषिकेश से लेकर टिहरी तक बनने वाले एक बड़े सड़क प्रोजेक्ट के तहत हजारों पेड़ों की बलि चढ़ाई जानी है। सरकार का तर्क है कि सड़क चौड़ी होने से पर्यटन और यातायात में सहूलियत होगी, लेकिन पर्यावरणविदों और स्थानीय लोगों का कहना है कि इस विकास की कीमत बहुत भारी है। पहाड़ी इलाकों में पेड़ों की कटाई न केवल पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ेगी, बल्कि भूस्खलन, जल संकट और तापमान में वृद्धि जैसे गंभीर संकट भी बढ़ेंगे।
चिपको आंदोलन की वापसी क्यों ज़रूरी?
आज जब पर्यावरणीय संकट हर ओर सिर उठा रहा है, तब 1973 में शुरू हुआ चिपको आंदोलन हमारे लिए एक प्रेरणा बनकर सामने आता है। वह आंदोलन केवल एक विरोध नहीं था, वह एक चेतावनी थी कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के नतीजे गंभीर होंगे। सुंदरलाल बहुगुणा और गौरा देवी जैसे पर्यावरण योद्धाओं की सोच आज और भी प्रासंगिक हो गई है।
18 मई को होने वाला यह आंदोलन उसी सोच को आगे बढ़ाने का प्रयास है। स्थानीय गांवों की महिलाएं, छात्र, सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरण प्रेमी मिलकर एकजुट हो रहे हैं। वे सरकार से मांग कर रहे हैं कि सड़क निर्माण के वैकल्पिक मार्ग ढूंढे जाएं, जिससे पेड़ों को न काटना पड़े। यह सिर्फ एक विरोध नहीं, बल्कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन की मांग है।
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पर्यावरणीय प्रभाव
भूस्खलन का खतरा: पेड़ों की जड़ें मिट्टी को बांधकर रखती हैं। इनके कटने से पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन की घटनाएं बढ़ सकती हैं।
जल स्रोतों पर असर: पेड़ बारिश के पानी को रोककर उसे भूगर्भ में पहुंचाते हैं। पेड़ों के कटने से जलस्रोत सूख सकते हैं।
वन्यजीव संकट में: यह क्षेत्र कई वन्य प्रजातियों का घर है। जंगल कटेंगे तो उनका आवास भी खत्म होगा।
जलवायु परिवर्तन में तेजी: पेड़ कार्बन डाइऑक्साइड को सोखते हैं। जब पेड़ काटे जाते हैं, तो वायुमंडल में कार्बन की मात्रा बढ़ती है।
क्या कहती है जनता?
स्थानीय लोग कहते हैं, “हमारे लिए पेड़ सिर्फ लकड़ी नहीं, जीवन हैं। ये हमें छांव देते हैं, जल देते हैं, हवा देते हैं। हम इनके बिना नहीं जी सकते।” बच्चों ने पोस्टर बनाकर, गीतों के जरिए इस आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाया है।
सरकार से अपेक्षा
इस आंदोलन के माध्यम से जनता सरकार से यह अपेक्षा कर रही है कि
परियोजना की दोबारा समीक्षा की जाए
पर्यावरणीय विशेषज्ञों से सलाह ली जाए
काटे जाने वाले पेड़ों के बदले वृहद स्तर पर पुनः वनीकरण हो
जनता की राय को महत्व दिया जाए
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चिपको आंदोलन की इस आधुनिक गूंज को नजरअंदाज करना सिर्फ पेड़ों की नहीं, बल्कि मानवता की सांसें छीनने जैसा होगा। 8000 पेड़ों की नहीं, ये 8000 जिंदगियों की बात है।
18 मई को उठी यह आवाज़ आने वाले वर्षों की दिशा तय करेगी — क्या हम विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति को कुर्बान करेंगे या समय रहते चेतकर उसे बचाने का रास्ता अपनाएंगे?
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