संभव है कि केंद्र सरकार संसद के 5 दिवसीय विशेष सत्र में समान नागरिक संहिता (UCC) का विधेयक पेश करे। यदि ऐसा होता है तो बदलते पारिवारिक-सामाजिक परिवेश के मुताबिक नए कानूनों का बढ़ती मांग पूरी होने की उम्मीद की जा सकती है। अभी पर्सनल लॉ और फैमिली लॉ में काफी बदलाव की गुंजाइश है।
बता दें साल 1996 में दीपिका मेहता की फिल्म आई। नाम था- फायर। इस फिल्म में 2 विवाहित महिलाओं को जुनूनी प्रेम के आगोश में एक-दूसरे के साथ शारीरिक सुख पाते हुए दिखाया गया। इस मुवी पर जनती की जबर्दस्त प्रतिक्रिया आई थी। उसके बाद पिछले साल 2022 में, हर्षवर्धन कुलकर्णी की बधाई दो फिल्म आई। इसमें भी एक महिला पुलिसकर्मी और शारीरिक शिक्षा विषय की एक महिला शिक्षक के बीच समलैंगिंक संबंधों (samlaingik wedding) को दर्शाया गया था। इनमें एक झूठमूठ की शादी भी कर लेती है ताकि वो अपना असली जीवन जी सके। इस फिल्म को समीक्षकों की प्रशंसा और बॉक्स ऑफिस पर भी बढ़िया रिटर्न, दोनों मिले।
इससे पता चलता है कि पिछले 25 सालों में आदर्श भारतीय परिवार की अवधारणा बदली है। समलैंगिक संबंधों (samlaingik wedding) और गैर-पारंपरिक परिवार संरचनाओं जैसे आधुनिक परिवारों को समाज तेजी से स्वीकार करने लगा है। दूसरी ओर, कानून में भी बदलाव हुए हैं। अदालती दखल के बाद आपराधिक कानून जैसे कुछ इलाकों में कानूनों को नए समाज की संरचना के अनुकूल बनाया गया है। लेकिन परिवार का कानून, जो विवाह, तलाक, गोद लेने, संरक्षण और उत्तराधिकार से संबंधित है, वो अब भी घिसा-पिटा और दशकों पुराना है। केंद्र सरकार ने 18 से 22 सितंबर तक संसद के 5 दिवसीय विशेष सत्र की घोषणा की, तो चर्चा बनी हुई है कि समान नागरिक संहिता ( UCC) का विधेयक पेश किया जा सकता है। इस वर्ष की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट में विवाह समानता के केस में भी सुनवाई हुई थी जिस पर फैसला आने वाला है। परिवार कानून (Family Law) अचानक चर्चा के केंद्र में आ गया है |
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भारत में परिवार का कानून मुख्य रूप से धर्म के आधार पर बने ‘व्यक्तिगत कानून’ (Personal Law) के अंदर है। पर्सनल लॉ एक ऐसा सिस्टम है जो किसी मनुष्य की धार्मिक पहचान के आधार पर अलग-अलग नियम लागू करती है। भारतीय परिवार के कानून के बड़े हिस्से पुराने सिद्धांतों पर आधारित हैं जिनकी प्रासंगिकता आज के वक्त में बहुत कम है। उदाहरण के लिए, भारत में घर का औसत आकार घटकर 4.4 हो गया है, लेकिन हिंदू उत्तराधिकार कानून में अभी भी सहदायिकता (संयुक्त उत्तराधिकार) की अवधारणा को मान्यता मिली हुई है। दरअसल, कानून की यह अवधारणा उस समय सामने आई थी जब संयुक्त परिवारों का चलन था और उनके खान-पान एवं पूजा-पाठ जैसी व्यवस्था साथ होती थी। इस अवधारणा को आधुनिक बनाना समय की मांग है। वर्षों से शिक्षाविदों और कानून से जुड़े लोगों, दोनों ने तत्काल सुधार की मांग की है। UCC को लेकर हाल की चर्चा आदर्श भारतीय परिवार की अवधारणा पर पुनर्विचार करने का एक उत्कृष्ट मौका प्रदान करती है।
भारत में फैमिली लॉ के तहत अलग-अलग प्रकार की व्यवस्था के परिवारों को मान्यता (samlaingik wedding) दी जानी चाहिए और सुधारों को मूल सिद्धांतों से शुरू करना चाहिए, जैसे कि लैंगिक न्याय, समानता, सम्मान और समावेश। इन सिद्धांतों पर आधारित एक UCC कई महत्वपूर्ण उद्देश्यों को प्राप्त कर सकती है। व्यस्कों के बीच आपसी प्रेम, एक-दूसरे की देखभाल और निर्भरता की मूलभूत जरूरतों से बने अलग-अलग प्रकार के संबंध आज के युग की सामाजिक वास्तविकता हैं। उदाहरण के लिए, हिजड़ा घराना एक परिवार के रूप में कार्य करता है लेकिन कानून उसे इस रूप में मान्यता नहीं देता है। इससे स्वास्थ्य देखभाल संबंधी फैसला लेने के लिए व्यक्तियों को नियुक्त करने के अधिकार, संपत्ति को विरासत में देने के अधिकार आदि तक पहुंच प्रतिबंधित हो जाती है। 21वीं सदी के फैमिली लॉ में असामान्य परिवारों को समायोजित करना चाहिए और उन्हें पारंपरिक परिवारों को प्राप्त लाभ भी दिया जाना चाहिए।
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क्वीर (Queer) लोगों को शादी करने के अधिकार से वंचित किया जाता है और साथ ही जीवनसाथियों के लिए उपलब्ध सामाजिक-आर्थिक अधिकारों से भी। केवल यौन अभिविन्यास (sexual oriantation) के आधार पर विवाह संस्थान से बाहर रखा जाना उनके मौलिक अधिकारों के खिलाफ है। लैंगिक पहचान और (sexual oriantation) के बावजूद सभी के लिए विवाह संस्थान को सुलभ बनाने की तत्काल जरूरत है। कानून आज भी मानता है कि महिलाएं ससुराल की संपत्ति बढ़ाने में कोई योगदान नहीं करती हैं। भारत में विवाह के बाद खरीदी गई संपत्ति का स्वामित्व अक्सर उन महिलाओं के पास नहीं होता है जो परिवार को पैसे कमाकर नहीं देती हैं। वक्त की मांग है कि फैमिली लॉ फ्रेमवर्क पति-पत्नि, दोनों द्वारा अर्जित संपत्ति को ‘साझा वैवाहिक संपत्ति’ की मान्यता मिले, जिसे तलाक के वक्त दोनों में समान रूप से बांटा जाए।
तलाक के समय बच्चों के भविष्य का निर्णय अन्य किसी भी विचार से ऊपर उनके ‘सर्वोत्तम हित’ के मद्देनजर किया जाना चाहिए। अब ‘सर्वोत्तम हित’ (samlaingik wedding) को देखने के कई नजरिए हो सकते हैं, इसलिए आधुनिक फैमिली लॉ फ्रेमवर्क में ही यह तय हो कि बच्चों का सर्वोत्तम हित क्या है ताकि अदालतें फैसला देते वक्त कानून में वर्णित विषयों का ध्यान रखें। मातृत्व को जीव विज्ञान (बायॉलजी) द्वारा निर्धारित किया जाता है जबकि पितृत्व को जन्म देने वाली मां से शादी के माध्यम से निर्धारित किया जाता है। माता-पिता मानने के ये आधार दूसरे कई प्रकार के माता-पिता को मां-बाप की परिभाषा से बाहर रख देते हैं। सवाल उठता है कि बिना जैविक माता-पिता के सभी प्रासंगिक कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को निभाकर बच्चे को पालने के स्पष्ट इरादे वाले व्यक्तियों का क्या? एक बढ़िया फैमिली लॉ को ‘सामाजिक मातृत्व और पितृत्व’ (social parentshood) को मान्यता देनी चाहिए, और कई तरह के माता-पिता, जैसे कि समलैंगिक माता-पिता (samlaingik wedding) और गैर-वैवाहिक माता-पिता, को अपने दायरे में लाना चाहिए।
असामान्य परिवार कोई नई बात नहीं है। भारतीय पौराणिक कथाओं में, कार्तिकेय या मुरुगन का पालन-पोषण कई माता-पिता ने किया था, जिनमें देवी और देवता, दोनों शामिल थे। उनके जैविक पिता शिव ने उनका पालन नहीं किया था। यह social parenthood) है – एक ऐसा रिश्ता जो रक्त से नहीं, बल्कि (samlaingik wedding)प्यार और देखभाल पर आधारित है। यह सच है कि ‘पारंपरिक’ परिवार मानक रहे हैं, लेकिन कानून केवल बहुमत की जरूरतें पूरा करने के लिए नहीं है। यह फैमिली लॉ के लिए विशेष रूप से सच है, जो सभी भारतीयों के लिए सुरक्षात्मक और सशक्त होने वाला है।