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हिंदी पट्टी में बीजेपी के सामने हांफती कांग्रेस

Assembly election 2023: चार राज्यों के चुनावी परिणाम ने साबित कर दिया है कि हिंदी पट्टी में बीजेपी का मुकाबला करना कांग्रेस के बस की बात नहीं है। और खासकर जब तक बीजेपी का कमान पीएम मोदी के हाथ में कांग्रेस हिंदी पट्टी में बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं है। मध्यप्रदेश ,छतीसगढ़ और राजस्थान में जिस तरह के परिणाम आये हैं उससे साफ़ हो गया है कि इन तीनो राज्यों में चुकी मुख्य पार्टी बीजेपी और कांग्रेस ही है लेकिन यह भी साफ हो गया है कि इन तीनो राज्यों में जनता कांग्रेस को जीवित तो रखना चाहती है लेकिन सत्ता के करीब अभी पहुँचने देना नहीं चाहती।

हिंदी पट्टी के ये तीनो चुनावी राज्य आज भी काफी पिछड़े हैं। कभी ये राज्य गोबरपट्टी कहे जाते थे। आज भी लगभग वही हालत है। हालांकि कुछ सालों में इन राज्यों की हालत जरूर सुधरी है लेकिन पिछड़ेपन और पलायन के दर्द से आज भी ये राज्य हलकान हैं। इन्ही राज्यों से सबसे ज्यादा पलायन भी हैं और सबसे ज्यादा महिलाओं के खिलाफ हिंसक कहानियां भी सामने आती है।

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कांग्रेस हिंदी पट्टी में पीएम मोदी से मुकाबला करने की हालत में नहीं है। चाहे ये तीनो चुनावी राज्य हैं या फिर यूपी ,बिहार ,उत्तराखंड ,हरियाणा जैसे राज्य ही क्यों न हों। हिमाचल और झारखंड भी इन्ही राज्यों के श्रेणी में हैं लेकिन हिमाचल और झारखंड की अपनी कहानी भी है। हिमाचल जहां कई उद्योगों से भरे हुए हैं और जिसका आर्थिक आधार पर्यटन पर टिका हुआ है वही झारखंड खनिज सम्पदा से संपन्न राज्य हैं। इन राज्यों में सरकार बदलती है रहती है। कभी आती है तो कभी जाती है। झारखंड की राजनीति मूलतः बीजेपी और झामुमो के बीच ही होती है। कांग्रेस का थोड़ा सा जनाधार है और हर चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज करने में शामिल रहा है। अभी झारखंड में झामुमो की सरकार कांग्रेस के सहयोग से चल रही है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं होगी कि कल झामुमो का समझौता बीजेपी से भी हो जाए। झामुमो के लिए बीजेपी और कांग्रेस में कोई अंतर नहीं है। वह किसी के भी साथ जा सकती है। लेकिन इस खेल में कांग्रेस सिर्फ उपयोग ही होती है या यह कहिये कि कांग्रेस गैर बीजेपी सत्ता के साथ जाने में सहज महसूस करती है।

हिंदी पट्टी में बिहार सबसे अहम् है। बिहार में क्षेत्रीय पार्टियां काफी मजबूत है। वहां राजद और जदयू के अलावे कई ऐसी पार्टियां हैं जिसका अपना कुछ न कुछ जातीय जनाधार है लेकिन कांग्रेस के पास यही जनाधार नहीं है। वह हमेशा दूसरी पार्टियों के साथ मिलकर ही सत्ता में आती है या फिर जाती है। कहने को आप कह सकते हैं कि बिहार में जो सरकार है उसमे कांग्रेस भी शामिल है लेकिन उसकी कोई हैसियत नहीं है।

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यूपी जैसे हिंदी प्रदेश में मुख्य मुकाबला सपा बसपा और बीजेपी के बीच ही है। अभी बीजेपी की सरकार है। सपा विपक्ष में है। जितनी कमजोर वहां बसपा है उससे भी ज्यादा कमजोर कांग्रेस है। बसपा का अपना जातीय गणित भी है लेकिन कांग्रेस के पास कोई गणित नहीं है। ऐसे में साफ़ है कि बीजेपी के बड़े खेल और क्षेत्रीय दलों की राजनीति के सामने हिंदी पट्टी में कांग्रेस के पास कोई चारा नहीं है।

अब कांग्रेस के लिए दक्षिण के ही कुछ राज्य बचे हुए हैं जहाँ वह आगे बढ़ती दिख रही है। कर्नाटक के साथ तेलंगाना में कांग्रेस में जरूर है लेकिन फिर तमिलनाडु ,आंध्रा और केरल में वहां की क्षेत्रीय पार्टियों के सामने कांग्रेस कमजोर ही दिखती है। ऐसे में साफ़ है कि जबतक मोदी की राजनीति चलती रहेगी हिंदी पट्टी में कांग्रेस का आधार नहीं बढ़ सकता। धर्म की राजनीति कांग्रेस की सेक्युलर राजनीति पर भारी है।

Akhilesh Akhil

Political Editor

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