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Mysore Dussehra 2023: ना राम ना रावण फिर भी दुनिया भर के टूरिस्ट आतें हैं मैसूर का दशहरा देखनें, जानिए इसके पीछा का रहस्य

Mysuru Dasara Celebrations 2023: मैसूर का दशहरा ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। यहां पर मेले के दौरान संस्कृति का आनंद का अद्भुत संयोग देखने को मिल रहा है। इस मेले को देखने के लिए देश से ही नहीं बल्कि विदेशों से भी लाखों लोग आते हैं। यहां मैसूर मेला राम या रावण को लेकर नहीं बल्कि चामुंडेश्वरी देवी को लेकर मनाया जाता है। आइए जानते हैं मैसूर के दशहरे की खास बातें…

दशहरा का पर्व देशभर में धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन मैसूर के दशहरा की अलग ही रौनक देखने को मिलती है। यहां दशहरा का पर्व पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है इसलिए मैसूर का दशहरा पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। दशहरा या विजयादशमी का पर्व पर मैसूर का राज दरबार आम लोगों के लिए खोल दिया जाता है और फिर भव्य जुलूस निकलता है। मैसूर के दशहरे में ना तो राम होते हैं और ना ही रावण का पुतला जलाया जाता है। यहां यह पर्व मां भगवती के राक्षस महिषासुर का वध करने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। यहां दशहरा का आयोजन नवरात्रि के पहले दिन से ही शुरू हो जाता है।
चामुंडेश्वरी देवी की पूजा होती हैं आरंभ
कर्नाटक के शहर मैसूर में दशहरे का आयोजन दस दिन तक होता है और इस त्योहार में लाखों की तादात में पर्यटक शामिल होते हैं। इस दशहरा को स्थानीय भाषा में दसरा या नबाबबा कहते हैं। इस उत्सव की शुरुआत देवी चामुंडेश्वरी मंदिर में पूजा अर्चना के साथ शुरू होती है। चामुंडेश्वरी देवी की पहली पूजा शाही परिवार करता है। इस पर्व में मैसूर का शाही वोडेयार परिवार समेत पूरा मैसूर शहर शामिल होता है।

दुल्हन की प्रकार सजता है मैसूर पैलेस
मैसूर के दशहरे में 10 दिन तक खास लाइटिंग की जाती है। इस मौके पर कई तरह की प्रदर्शनियां निकलती हैं और कई तरह के धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। मैसूर पैलेस को जहां एक लाख से अधिक बल्ब के साथ खूबसूरत बनाया जाता है, वहीं चामुंडेश्वरी पहाड़ियों को 1.5 लाख बल्बों के साथ प्रकाशमय किया जाता है। महल के सामने मैदान में एक दसारा प्रदर्शन का भी आयोजन किया जाता है।

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14वीं शताब्दी में हुई थी शुरुआत
इस साल मैसूर का भव्य त्योहार 408वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है। इस मेले के इतिहास के बारे में बताया जाता है कि हरिहर और बुक्का नाम के दो भाइयों ने 14वीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य में नवरात्रि का उत्सव मनाया था। इसके बाद 15वीं शताब्दी में राजा वोडेयार ने दस दिनों के मैसूर दशहरे उत्सव की शुरुआत की। कथा मिलती है कि यहां मौजूद चामुंडी पहाड़ी पर माता चामुंडा ने महिषासुर नामक राक्षस का अंत किया था और बुराई पर सत्य की जीत को बहाल किया। इसलिए मैसूर के लोग विजयादशमी या दशहरे को धूमधाम से मनाते हैं।

निकाली जाती हैं झांकियां
दशहरे के दिन यहां माता चामुंडेश्वरी की पूजा अर्चना की जाती है। इसके बाद खास जुलूस निकलता है, जो अंबा महल से शुरू होता है और मैसूर से होते हुए करीब 5 किमी दूर तक जाता है। इस जुलूस में तकरीबन 15 हाथियों को शामिल किया जाता है और खूबसूरत तरीके से सजाया जाता है। उस जुलूस में नृत्य, संगती, सजे हुए जानवर आदि झांकियां निकाली जाती हैं।

माता निकलती हैं नगर भ्रमण पर
10वें दिन मनाए जाने वाले उत्सव को जंबू सवारी के नाम से जाना जाता है और इसमें बच्चे बड़े सभी लोग शामिल होते हैं। साथ ही सोने चांदी से सजे हाथियों का काफिला निकलता है और 21 तोपों की सलामी के बाद मैसूर राजमहल से निकलता है। इस दिन सभी की निगाहें गजराज के सुनहरे हौदे पर टिकी होती हैं। इसी हौदे पर चामुंडेश्वरी देवी मैसूर नगर भ्रमण के लिए निकलती हैं और उनके साथ अन्य गजराज भी साथ निकलते हैं। साल भर में यही एक मौका होता है, जब देवी मां 750 किलो के सोने के सिंहासन पर विराजमान होकर नगर भ्रमण के लिए निकलती हैं।

Prachi Chaudhary

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