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आशीर्वाद की शक्ति की अद्भुत कहानी

आशीर्वाद एक शक्ति है जो अदृश्य रूप से हमारा कल्याण करती है। अतः विवाह, यज्ञ तथा महत्वपूर्ण अवसरों पर बड़े-बुजुर्गों, विद्वान तपस्वियों का आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए और उनके चरण स्पर्श करते वक्त हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि अपने दाएं हाथ से उनका दाहिना पांव तथा अपने बाएं हाथ से उनका बायां पांव स्पर्श करें, घुटने स्पर्श न करें तभी बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद फलीभूत होता है।

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दुर्भाग्य को दूर कर सौभाग्य का सृजन करता है। आशीर्वाद – विद्वानों, तपस्वियों तथा बड़े-बुजुर्गों के आशीर्वाद में अद्भुत फलदायिनी शक्ति होती है जो एक गुप्त मानसिक कवच की तरह सदा हमारे साथ रहती है। जिस तरह लोहे का बना हुआ कवच युद्ध में व्यक्ति के शरीर की रक्षा करता है उसी तरह विद्वानों और तपस्वियों का दिया हुआ आशीर्वाद दुर्भाग्य को दूर कर सौभाग्य का सृजन करता है। एक बड़े प्रतापी ऋषि के घर में बालक का जन्म हुआ। उसके ग्रह-नक्षत्रों का अध्ययन कर ऋषि चिन्तित हो उठे। ग्रह के मुताबिक बालक अल्पायु होना चाहिए था। उन्होंने अपने गुरुदेव से उपाय पूछा। उन्होंने कहा, अगर बालक वृद्धजनों को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करता रहे तो ग्रह-नक्षत्र बदलने की संभावना होती है। उन्होंने पुत्र को अपने से बड़ों को देखते ही विनीत भाव से प्रणाम करने की शिक्षा व निर्देश दिया। जो भी कोई मिलता, बालक हाथ जोड़कर उसे प्रणाम करता। प्रणाम का उत्तर ‘आयुष्मान भवः शब्द से मिलता। एक बार संयोग से उधर सप्तऋषि आ निकले। बालक ने सप्तऋषियों को हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया। सप्तऋषियों ने बालक को विनम्रता से गदगद होकर आशीर्वाद दिया, ‘आयुष्मान भवः’। सप्तऋषियों ने दीर्घजीवी होने का आशीर्वाद दे डाला, अब उनका वचन असत्य निकला तो क्या होगा। ब्रह्मा जी ने सप्तऋषियों का संशय दूर करते हुए कहा, ‘वृद्धजनों का आशीर्वाद बहुत शक्तिशाली होता है। इस बालक ने असंख्य वृद्धजनों से दीर्घजीवी होने का आशीर्वाद प्राप्त कर अल्पायु होने वाले ग्रहों को बदल डाला है। आप निश्चिंत रहें, आपका वचन असत्य नहीं होगा।’

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महाभारत के एक प्रसंग में भी आशीर्वाद की असीम शक्ति का वर्णन मिलता है। कुरुक्षेत्र के मैदान में पांडव और कौरव सेना आमने-सामने डटी हुई थी। अचानक धर्मराज युधिष्ठिर निहत्थे ही कौरव पक्ष की तरफ चल दिए। पांडव और अन्य सैनिक युधिष्ठिर को शत्रु पक्ष की तरफ जाते देखकर आश्चर्य में पड़ गए। युधिष्ठिर सबसे पहले गुरुदेव द्रोणाचार्य की तरफ बढ़े। उनके समक्ष झुककर हाथ जोड़कर आशीर्वाद की याचना की। गुरु द्रोण ने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। युधिष्ठिर ने आगे बढ़कर भीष्म पितामह के चरणों में शीश नवाया और विनम्रता से बोले, ‘विवशता में आप जैसे मार्गदर्शक और पितामह से युद्ध को प्रवृत्त होना पड़ रहा है। क्षमा माँगने और आशीर्वाद लेने आया हूं।’ भीष्म पितामह ने मुसकराते हुए शीश पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया। अर्जुन रथ पर सवार थे। उन्होंने यह देखा, तो उनके मुख पर चिंता की लहर दौड़ गई। वह युद्ध में अपने कौशल और शौर्य दिखाने को उत्सुक थे। वह समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर युधिष्ठिर को क्या हो गया है? वह क्यों दुश्मन पक्ष के धुरंधरों के पैर में झुक रहे हैं? सारथी प्रभु Shri krishan अर्जुन की मनोदशा समझ गए। वह बोले, ‘पार्थ, युधिष्ठिर (udisthra) ने गुरु और पितामह का आशीर्वाद प्राप्त कर आधा महाभारत जीत लिया है।

Prachi Chaudhary

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