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Common Civil Code: अब फिर होगी सामान नागरिक संहिता पर भिड़ंत ,सुप्रीम कोर्ट ने दी हरी झंडी

समान नागरिक संहिता के परीक्षण लिए कमेटी का गठन राज्य सरकार के दायरे में होना चाहिए। साथ ही अदालत ने यह भी कहा है कि कमेटी का गठन ही अदालत में चुनौती देने का आधार नहीं। सुप्रीम कोर्ट में दोनों राज्यों में बनाई गई कमेटी के खिलाफ याचिका दायर की गई थी, जिस पर सुनवाई से अदालत ने इनकार कर दिया है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ (Chief Justice DY Chandrachud) और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की बेंच ने कहा कि राज्यों ने अनुच्छेद 162 के तहत कार्यकारी शक्तियों के तहत एक समिति का गठन किया है।

Todays News सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने गुजरात और उत्तराखंड सरकार द्वारा सामान नागरिक संहिता के परिक्षण के लिए बनाई गई कमिटी को हरी झंडी दे दी है और इसके साथ ही अदालत ने यह भी कहा है कि सामान नागरिक संहिता बनाने के सुझाव देने वाली कमिटी का गठन अधिकार राज्य सरकार को होना चाहिए। जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद अब देश के भीतर सामान नागरिक संहिता की तैयारी होगी। हर राज्य इस मामले को आगे बढ़ाएंगे। बता दें कि बीजेपी सरकार काफी पहले से सामान नागरिक संहिता को लेकर राजनीति करती रही है और समाज का एक वर्ग इसका विरोध करता रहा है। लेकिन अब राज्यों में  ऐसी कमिटी बनाने का रास्ता साफ़ हो गया है।

अदालत ने कहा है कि समान नागरिक संहिता के परीक्षण लिए कमेटी का गठन राज्य सरकार के दायरे में होना चाहिए। साथ ही अदालत ने यह भी कहा है कि कमेटी का गठन ही अदालत में चुनौती देने का आधार नहीं। सुप्रीम कोर्ट में दोनों राज्यों में बनाई गई कमेटी के खिलाफ याचिका दायर की गई थी, जिस पर सुनवाई से अदालत ने इनकार कर दिया है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ (Chief Justice DY Chandrachud) और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की बेंच ने कहा कि राज्यों ने अनुच्छेद 162 के तहत कार्यकारी शक्तियों के तहत एक समिति का गठन किया है। इसमें गलत क्या है? या तो आप याचिका वापस लें या हम इसे खारिज कर देंगे। इसके बाद याचिकाकर्ता ने याचिका वापस ले ली।

बता दें कि समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड (uniform civil code) का अर्थ होता है भारत में रहने वाले हर नागरिक के लिए एक समान कानून होना, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो। समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक और जमीन-जायदाद के बंटवारे में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होगा। यूनियन सिविल कोड का अर्थ एक निष्पक्ष कानून है, जिसका किसी धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है।

इसके पक्ष का तर्क ये है कि सामान  नागरिक संहिता एक पंथनिरपेक्ष कानून होता है जो सभी धर्मों के लोगों के लिए समान रूप से लागू होता है। यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने से हर मजहब के लिए एक जैसा कानून आ जाएगा। यानी मुस्लिमों को भी तीन शादियां करने और पत्नी को महज तीन बार तलाक बोले देने से रिश्ता खत्म कर देने वाली परंपरा खत्म हो जाएगी। वर्तमान में देश हर धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने पर्सनल लॉ के अधीन करते हैं। फिलहाल मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का पर्सनल लॉ है जबकि हिन्दू सिविल लॉ के तहत हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं। संविधान में समान नागरिक संहिता को लागू करना अनुच्‍छेद 44 के तहत राज्‍य की जिम्‍मेदारी बताया गया है, लेकिन ये आज तक देश में लागू नहीं हो पाया। इसे लेकर एक बड़ी बहस चलती रही है।

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समान नागरिक संहिता  की अवधारणा का विकास औपनिवेशिक भारत में तब हुआ, जब ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1835 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, जिसमें अपराधों, सबूतों और अनुबंधों जैसे विभिन्न विषयों पर भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता लाने की आवश्यकता पर बल दिया गया, हालाँकि रिपोर्ट में हिंदू और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इस एकरूपता से बाहर रखने की सिफारिश की गई। ब्रिटिश शासन के अंत में व्यक्तिगत मुद्दों से निपटने वाले कानूनों की संख्या में वृद्धि ने सरकार को वर्ष 1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिये बी.एन. राव समिति गठित करने के लिये मजबूर किया।

इन सिफारिशों के आधार पर हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों के लिये निर्वसीयत उत्तराधिकार से संबंधित कानून को संशोधित और संहिताबद्ध करने हेतु वर्ष 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के रूप में एक विधेयक को अपनाया गया।हालाँकि मुस्लिम, इसाई और पारसी लोगों के लिये अलग-अलग व्यक्तिगत कानून थे।कानून में समरूपता लाने के लिये विभिन्न न्यायालयों ने अक्सर अपने निर्णयों में कहा है कि सरकार को एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिये।शाह बानो मामले (1985) में दिया गया निर्णय सर्वविदित है। इसके साथ ही सरला मुद्गल वाद (1995) भी इस संबंध में काफी चर्चित है, जो कि बहुविवाह के मामलों और इससे संबंधित कानूनों के बीच विवाद से जुड़ा हुआ था।

प्रायः यह तर्क दिया जाता है ‘ट्रिपल तलाक’ (Triple Talaq) और बहुविवाह जैसी प्रथाएं एक महिला के सम्मान और उसके गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, केंद्र ने सवाल उठाया है कि क्या धार्मिक प्रथाओं को दी गई संवैधानिक सुरक्षा उन प्रथाओं तक भी विस्तारित होनी चाहिये जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं।

 हमारे देश में हिन्दू लॉ ,मुस्लिम पर्सनल लॉ भी हैं लेकिन इनमे कई सुधार भी हुए हैं। लेकिन महिलाओं की गरिमा को बचाये रखने के लिए सामान नागरिक संहिता की काफी जरुरत दिख रही है। यह बात और है कि इस कानून का हमेशा से ही कुछ लोग विरोध करते रहे हैं। यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध करने वालों का कहना है कि ये सभी धर्मों पर हिन्दू कानून को लागू करने जैसा है। लेकिनइस तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि कानून के सामने तो सभी धर्म और लोग एक ही है।

एक तरफ भारत में समान नागरिक संहिता को लेकर बड़ी बहस चल रही है, वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की, इंडोनेशिया, (Indonesia) सूडान और इजिप्ट जैसे कई देश इस कानून को अपने यहां लागू कर चुके हैं।

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Neetu Pandey

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