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तुलसीदास जी ने क्यों कहा ताड़ना के अधिकारी ?

पशु को लेकर क्या कहा गया है अब इसकी पड़ताल करते हैं.ज्यादा विस्तार में ना जाएं तो भारतीय परिवेश में पशु का जिक्र करते ही सबसे पहले गोवंश का अक्स ही ज़हन में उभरता है.इसके अलावा तमाम पशु-पक्षी हमारे देवताओं के वाहन हैं.रामचरित मानस के नायक भगवान श्रीराम भी वानर सेना के साथ ही लंका पर चढ़ाई करते हैं और उनकी सेना में रिछ भी हैं.ऐसे में इसका रचयिता पशुओं के संबंध में पीटना या दुत्कारना जैसे शब्दों का इस्तेमाल कतई नहीं कर सकता

ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी.ये सब ताड़ना के अधिकारी.रामचरित मानस की इस पंक्ति को लेकर जब देखो तब विवाद होने लगता है.विवाद में शामिल होने वाले ज्यादातर पक्षकार शुद्र और नारी पर ही केंद्रित रहते हैं.और शुद्र और नारी की मान रक्षा की लड़ाई शुरू हो जाती है.वहीं ढोल, गंवार और पशु पर लोगों का ज्यादा ध्यान ही नहीं जाता.जबकि हमें लगता है कि यही वो तथ्य हैं जिन पर ध्यान दिया जाए तो समाधान निकल सकता है.रामचरित मानस के इस पंक्ति पर विवाद के पक्षकार ताड़न शब्द को लेकर भी बहस में उलझ जाते हैं.कोई कहता है कि ताड़न का मतलब पीटना होता है, कोई कहता है दुत्कारना होता है तो कोई कहता है कि इसका मतलब सुध लेना या संरक्षण देना होता है.अपने अपने तर्क को पुष्ट करने के लिए लोग तत्कालीन समय की अवधी और ब्रज भाषा में इन शब्दों के अर्थ क्या है इसका उदाहरण भी देते हैं.

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ताड़न शब्द का अर्थ क्या हो सकता है और क्यों इसका संबंध ढोल, गंवार और पशु से जोड़ा गया इसका जवाब हमें ढूंढना होगा.अगर हमने ये ढूंढ लिया तो शुद्र और नारी से इसका संबंध क्या है अपने आप प्रमाणित हो जाएगा.तो सबसे पहले बात करते हैं ढोल की.ढोल का संबंध दुत्कारना से तो कतई नहीं हो सकता.इसका संबंध पीटने से हो सकता है, संरक्षण से हो सकता है या सुध लेने से हो सकता है.

ढोल क्या है.हम सभी जानते हैं कि ढोल सनातन परंपरा में केवल एक वाद्य यंत्र नहीं है.बल्कि इसका संबंध प्राचीन काल से धार्मिक आयोजन से जुड़ा है.और चुंकि रामचरित मानस एक धर्मग्रंथ है तो इसमें धार्मिक वाद्य यंत्र को लेकर कोई नकारात्म बात लिखी ही नहीं जा सकती है.इसलिए तुलसीदास जी का मन्तव्य इसके संरक्षण या सुध लेने का ही था.

पर क्यों…ढोल के संरक्षण या सुध लेने की आवश्यकता क्या थी.अब मामला तात्कालीन परिस्थिति पर आ जाता है.तुलसीदास जी ने जब रामचरित मानस लिखा तब भारत में मुगलों का शासन था और जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर बादशाह थे.हिंदुओं पर मुगलों के अत्याचार की कहानी से सभी परिचित हैं.हिंदू धार्मिक आयोजनों और तीर्थ यात्राओं के साथ, धार्मिक गीत-संगीत पर भी कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए गए थे.प्रतिबंधों के कारण ढोल जैसे धार्मिक वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल कम हो गया था.ये रखे-रखे खराब ना हो जाए इसलिए इसकी सुध लेना जरूरी था…ढोल एक धार्मिक प्रतीक भी है इसलिए इसका संरक्षण भी आवश्यक था.

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गंवार का अर्थ क्या है.गंवार का शाब्दिक अर्थ गांव का निवासी है या इसका मतलब अनपढ़ से भी जोड़ा जाता है.रामचरित मानस हिंदी भाषी क्षेत्र के लोगों के लिए पहला धार्मिक ग्रंथ है जो संस्कृत में नहीं है.इसे लिखा ही हिंदी में इसलिए गया ताकि गांव-देहात के लोग इसे आसानी से आत्मसात कर सकें.ऐसे में जिनके लिए या जिनकी सुविधा के लिए ग्रंथ लिखा जा रहा हो उनके लिए ही पीटना या दुत्कारना जैसे शब्दों का इस्तेमाल कोई कैसे कर सकता है.उल्टे उनकी सुध लेने या उन्हें संरक्षण देने की बात जरूर की जा सकती है.अगर गंवार को अनपढ़ से जोड़ा जाए तो इसमें किसी भी जाति या वर्ण का समावेश भी अपने आप हो जाता है.क्योंकि ऐसा कहीं जरूरी नहीं है कि कोई उच्चजाति का है या सवर्ण है, अनपढ़ ना हो.

पशु को लेकर क्या कहा गया है अब इसकी पड़ताल करते हैं.ज्यादा विस्तार में ना जाएं तो भारतीय परिवेश में पशु का जिक्र करते ही सबसे पहले गोवंश का अक्स ही ज़हन में उभरता है.इसके अलावा तमाम पशु-पक्षी हमारे देवताओं के वाहन हैं.रामचरित मानस के नायक भगवान श्रीराम भी वानर सेना के साथ ही लंका पर चढ़ाई करते हैं और उनकी सेना में रिछ भी हैं.ऐसे में इसका रचयिता पशुओं के संबंध में पीटना या दुत्कारना जैसे शब्दों का इस्तेमाल कतई नहीं कर सकता…ऊपर से भारत कृषि प्रधान देश है जिसमें खासकर तत्कालीन समय में पशुओं की महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता.ऐसे में तुलसीदास जी अपने लोकग्रंथ में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ढोने वाले पशुओं को कैसे तिरस्कृत कर सकते हैं.

जब ढोल, गंवार और पशु के लिए संरक्षण या सुध लेने की बात की जा रही है तो ऐसे में नारी और शुद्र के लिए इसके अर्थ का अनर्थ करना एकदम गलत बात है.इसलिए जो लोग भी तुलसीदास जी के रामचरित मानस का विरोध करते हैं वास्तव में वो भी ताड़न के अधिकारी है अर्थात उनके भी सुध लेने की आवश्यकता है उनके भी संरक्षण की आवश्यकता है ताकि उनका भी बौद्धिक विकास हो सके.

Kamal

Political Editor

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