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क्या वाकई में एक राष्ट्र एक चुनाव संभव है?

One Nation One Election: यह बात और है कि मोदी सरकार ने बहुत से असंभव काम को संभव कर दिखाया है लेकिन कई प्रयास पलट भी गए हैं। धारा 370 हटाने और नोटबंदी के साथ ही तीन तलाक पर सरकार ने जो भी किया उसे तो रोका नहीं गया लेकिन किसान बिल का ज्यादा विरोध हुआ और मोदी सरकार को अपने फैसले को रोलबैक करना पड़ा। ऐसे में अभी जब देश के भीतर कई समस्याएं है अचानक एक राष्ट्र एक चुनाव को लेकर बहस जारी हो गई है। संसद का विशेष सत्र भी बुलाया गया है। यह सत्र क्यों बुलाया गया है इसकी सच्चाई अभी किसी को पता नहीं है। यह सत्र 18 से 22 सितम्बर तक चलना है। जिस दिन संसद सत्र का ऐलान हुआ ठीक उसी के दूसरे दिन पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अध्यक्षता में आठ लोगों की समिति भी बनाई गई। इस समिति में कई लोगों के नाम रखे गए। जो नाम सामने आये उनमें नेता के रूप में गृह मंत्री अमित शाह, पूर्व केंद्रीय मंत्री गुलाम नबी आजाद और कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी रहे। इसके अलावा कई एक्सपर्ट के नाम थे। हालांकि बाद में अधीर रंजन चौधरी ने भी अपना नाम वापस ले लिया।

One Nation One Election

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जाहिर है अब विपक्ष की भागीदारी इस समिति से ख़त्म हो गई है। लेकिन मजे की बात है तो सरकार को सभी दलों से कुछ लोगों को इस समिति में रखने की जरूरत थी ताकि सबकी राय ली जाए और अगर इस राह में कोई समस्या है तो उसे दूर कर दिया जाए। हर दल चाहता है कि चुनाव में जो खर्च होते हैं उसे कम किया जाए और हर साल चुनाव के लफड़े से बचा जाए। लेकिन क्या यह संभव है? अगर ऐसा होता है तो उस दिशा में क्या कुछ हो सकता है जब केंद्र सरकार ही किसी कारण बस गिर जाए। किसी राज्य की सरकार गिर जाए फिर वहां राष्ट्रपति शासन लगाने की नौबत आ जाए? यह बहुत ही सीधा सवाल है। हो सकता है इसके लिए भी कोई तरकीब निकाली जा सकती है लेकिन उस स्थिति में क्या होगा जब किसी सरकार को गिराने के लिए ऑपरेशन कमल या ऑपरेशन पंजा जैसे अभियान को दिया जाएगा?

एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक अधीर रंजन चौधरी अपना नाम वापस लेते हुए इस खेल को सिर्फ एक ढकोसला तक कहा है। उन्होंने कहा है कि समिति के विमर्श का नतीजा पहले ही तय कर दिया गया है। फिर इस समिति की क्या जरूरत है? इसके जो दिशा-निर्देश बनाये गए हैं वे सब इसके निष्कर्षों की तरफ ही जाते हैं। चौधरी ने यह भी आरोप लगाया है कि जिस तरह अचानक इस संदिग्ध विचार को देश पर थोपा जा रहा है उससे सरकार के अप्रत्यक्ष इरादों को लेकर चिंताएं उत्पन्न होती है। लेकिन दूसरी तरफ समिति ने काम करना भी शुरू कर दिया है।

जानकार मान रहे हैं कि पूरे देश में लोकसभा और विधान सभा के चुनाव एक साथ कराना पेचीदा काम है। इस समय सिर्फ कुछ ही विधान सभाओं का कार्यकाल मौजूदा लोकसभा के कार्यकाल के पास ख़त्म होगा। बाकी राज्यों में अभी चुनाव नहीं होने हैं। फिर कौन सा राज्य चाहेगा कि उसकी चुनी हुई सरकार समय से पहले ही ख़त्म हो जाए और अगर अभी कानून बनाकर इस पर अमल भी किया, ताे आने वाले समय में क्या कुछ हुआ कौन जानता है?

ऐसे में जब भी एक राष्ट्र एक चुनाव कराने होने तो उस वक्त किसी न किसी राज्य की विधानसभा के कार्यकाल को कम करना होगा और ऐसा होता है तो भारत के संघीय ढाँचे में राज्यों के अधिकारों के साथ छेड़छाड़ ही होगा। क्या कोई भी राज्य यह मान सकता है? कई जानकार मानते है कि अगर ऐसा होगा तो संविधान को बदलने की जरूरत होगी। यह सब एक जटिल प्रक्रिया है और फिर वही सावल सामने आएंगे कि अगर कोई सरकार गिर गई तो क्या होगा? क्या अब सरकार गिरेगी ही नहीं? या फिर अब कोई ऑपरेशन चलेगा ही नहीं?

आगे क्या होगा कोई नहीं जानता। लेकिन संसद के विशेष सत्र को लेकर कई तरह के कयास तो लगाए ही जा रहे हैं। चिंता तो सबकी बढ़ गई है। अभी इन्तजार करने की जरूरत है।

Akhilesh Akhil

Political Editor

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