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President of Bharat: सबको लुभा रही है है नाम बदलने की राजनीति, क्या इंडिया का नाम भी बदल जायेगा?

President of Bharat: लोकतंत्र में सरकार किसके लिए काम करती है? लोग कहते हैं जनता के लिए। सवाल फिर उठता है कि लोकतंत्र का मालिक कौन है? जवाब मिलता है जनता। तीसरा सवाल उठता है कि जब लोकतंत्र में दीमक लग जाए तब क्या होगा? और फिर दीमक कौन है? ये दो ऐसे सवाल है जिसके जवाब में यह पूरा तंत्र बदनाम हो सकता है और सरकार बनाने से लेकर बिगाड़ने की कहानी सामने आ सकती है। देश की सही आबादी कितनी है यह कोई नहीं जानता है। 2021 में जो जनगणना होनी थी वह तो हुई नहीं। क्यों नहीं हुई इसका भी सही जवाब किसी के पास नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी भी इस पर अभी तक कोई बयान नहीं दे पाए हैं। और अब शायद इस दशक का जनगणना हो भी न पाए। यह भी एक नया रिकॉर्ड होगा देश के लिए। सामान्य ज्ञान में यह सवाल पूछा जाएगा कि जब देश में हर दस सालों में एक बार जनगणना कराने की परिपाटी है ताे किस दशक में जनगणना नहीं हुई। याद रहे जनगणना कराने का वर्ष 2021 था।

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लेकिन ये सारे सवालों से क्या मतलब ! मतलब तो लोकतंत्र, जनता और अंधभक्तों की हो रही है। ये सभी गूढ़ विषय हैं और गूढ़ तत्व भी। राजनेता इन गूढ़ तत्वों का विश्लेषण करते हैं। जो नेता जुड़ा इस तत्व को जान जाता है वह कुछ सालों तक जनता पर राज करता है जो तत्व ज्ञान हीन होता है उसकी सत्ता आती जाती रहती है। बीजेपी के पास तत्व की कमी नहीं और उसके कुछ नेता और संघ के लोग तो यही सब करते रहते हैं। सामने चुनाव है और बीजेपी आगे क्या कुछ करना चाहती है यह किसी को पता नहीं। ऊपर से दिख रहा है कि प्रधानमंत्री समेत बीजेपी के दर्जन भर नेता देश के चुनावी राज्यों में घूमते फिर रहे हैं और बयान से माहौल को जमाये हुए हैं, मीडिया में बने हुए हैं और लोगों पर अपनी अमिट छाप बनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन यह सब तो केवल दिखता है। रात के अँधेरे में नेता लोग जो असली राजनीति सोंचते हैं और करते हैं उसके बारे में जनता को कहां कुछ पता है ?

अंधभक्ति मौजूदा राजनीति की सबसे बड़ी कड़ी है। बीजेपी की सरकार तो देश में पहले भी बनी थी। अटल जी तीन बार प्रधानमंत्री रहे। करीब साढ़े सात साल वे पीएम रहे। लेकिन तब तक देश में अंधभक्ति नहीं पनपी थी। अटल की सरकार होते हुए भी बीजेपी के बीच भी कई मनमुटाव चलते थे। तब बीजेपी के भीतर भी ऐसे नेता थे जो सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने से नहीं चूकते थे। वे जानते थे कि जनता की उम्मीदों पर उतरे वगैर सरकार का इकबाल बुलंद नहीं हो सकता। फिर 2004 के चुनाव में बीजेपी ने साइनिंग इंडिया का नारा दिया था। अटल जी जैसे बड़े और नामी नेता के रहते हुए भी बीजेपी की भारी हार हो गई। यह हार क्यों हुई ?

इसके तह में जाइयेगा तो पता चलेगा कि तब लोगों में सही और गलत कहने का मादा था। लोग सरकार के खिलाफ कुछ भी कहने से बाज नहीं आते थे। तब की मीडिया भी सरकार को घेरे में रखती थी और सरकार के मंत्रियों के खिलाफ रपट भी लिखती थी। यह बात और है कि तब भी दर्जन भर से ज्यादा पत्रकार करोड़पति जरूर बने थे। उनकी पत्रकारिता से देश को कुछ मिला या नहीं लेकिन उनके घर जरूर भर गए थे। ये सभी आज देश के नामी लोगों में शुमार हैं। लेकिन किसी के सामने आँख नहीं मिला सकते। आज जो पत्रकार बदनाम हैं वे सभी उसी काल के हैं। इन्होंने अपना जमीर बेच दिया था और पत्रकारिता को कलंकित भी किया था।

लेकिन आज के दौर में सबसे ज्यादा देश की परेशानी गोदी मीडिया से नहीं है। वह इसलिए कि लोकतंत्र में भला कोई किसी की आवाज को लम्बे समेत तक दबा नहीं सकता। और आज तो सोशल मीडिया ने मुख्य मीडिया को भी दबा दिया है। उससे आगे बढ़ता दिख रहा है। यह बात और है कि सोशल मीडिया पर भी नजर रखने की जरूरत है क्योंकि इसमें गैर पत्रकार लोगों की भरमार होती जा रही है और वे भी इसे गंदा करते जा रहे हैं।

देश में अंधभक्तो की एक बड़ी जमात खड़ी हो गई है। ये अंधभक्त मूलतः अनपढ़ होते हैं। अनपढ़ मतलब यह कि भले ही इनके पास कुछ मामूली डिग्रियां होती हैं लेकिन ये साक्षर से ज्यादा कुछ भी नहीं। न इन्हें देश की समझ है और ना ही समाज की। न विज्ञान की और न ही दुनिया में क्या कुछ हो रहा है इसकी जानकारी मिलती है। ये सभी पंड़ा पंडित के समान हैं। इन लोगों ने देश के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर दी। लोकतंत्र आज इन्हीं लोगों से बदनाम है और ढहता हुआ नजर आ रहा है।

कोई नहीं जानता कि केंद्र सरकार ने आखिर किस मुद्दे पर विशेष सत्र को बुलाया है। आजाद भारत (INDIA) का यह ऐसा सच है जो आज तक देश में हुआ ही नहीं। लेकिन अंधभक्तों को इससे क्या मतलब ! आप उन इस पर सवाल कीजिये तो उनके जो जवाब मिलेंगे, उसके बारे में आप सोंच भी नहीं सकते। खैर जो भी हो। आप नेता संजय सिंह ने कहा है कि आखिर क्या मोदी क्या संविधान को बदलना चाहते हैं ? क्या बाबा साहेब आंबेडकर के संविधान से सरकार को चिढ है? क्या देश का नाम बदलने का कोई षड्यंत्र तो नहीं ! यह बड़ी बात है। और ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी। इस देश में नाम बदलने की परिपाटी खूब चल रही है। कई शहरों के नाम बदल गए, कई जिलों के नाम बदल गए। कई दशकों के नाम बदल गए और कई गांव के नाम भी बदल गए। फिर देश का नाम भी बदल जाए इससे क्या फर्क पड़ेगा? लेकिन कोई अपने माता-पिता का नाम बदल देगा? अंधभक्त को इस पर ध्यान देने की जरूरत है।

Akhilesh Akhil

Political Editor

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